उपन्यास >> प्रारब्ध और पुरुषार्थ प्रारब्ध और पुरुषार्थगुरुदत्त
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प्रथम उपन्यास ‘‘स्वाधीनता के पथ पर’’ से ही ख्याति की सीढ़ियों पर जो चढ़ने लगे कि फिर रुके नहीं।
सुंदरी का सिर चक्कर खाने लगा था। परंतु इतनी दूर आने के बाद लौटना न तो उचित प्रतीत हुआ और न ही संभव।
वह टट्टीखाने के पिछले द्वार से, जो भंगी के आने के लिए बना था, निकल गई।
इस पर उस व्यक्ति ने कहा, ‘‘अँधेरा है। मेरे कंधे पर हाथ रख चली आओ।’’
इस प्रकार अँधेरे में एक सौ गज तक चलना पड़ा और एक जानी पहचानी आवाज ने कहा, ‘‘सुंदरी, मैं निरंजन देव हूँ, चली आओ।’’
‘‘कौन? यह नाम उसे विदित नहीं था। इस पर भी वह आवाज पहचान गई थी कि उसका पति है।
वह अब उसकी बाँह पकड़ उसके पीछे-पीछे चलने लगी। पहला व्यक्ति वहीं खड़ा रह गया।
सुंदरी ने पूछा, ‘‘और वह कौन था?’’
‘‘नगर चैन का एक सफाई करनेवाला दारोगा था।’’
‘‘ईश्वर का धन्यवाद है कि आपके मन में दया आ गई है।’’
‘‘तनिक ठहरो। सब बताता हूँ।’’
लगभग पाँच सौ गज और चलना पड़ा कि ये एक सड़क पर पहुँच गए। वहाँ एक इक्का खड़ा था। इक्के पर कोचवान नहीं था। सुंदरी के साथी ने कहा, ‘‘इस पर चलना होगा।’’
सुंदरी लपककर इक्के पर चढ़ गई। निरंजन देव कोचवान के स्थान पर बैठ गया और घोड़ों को हाँकने लगा। घोड़े सरपट दौड़ने लगे।
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