उपन्यास >> प्रारब्ध और पुरुषार्थ प्रारब्ध और पुरुषार्थगुरुदत्त
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प्रथम उपन्यास ‘‘स्वाधीनता के पथ पर’’ से ही ख्याति की सीढ़ियों पर जो चढ़ने लगे कि फिर रुके नहीं।
मोहन आदि सब अवाक् शहंशाह की ओर देखते रह गए। शहंशाह अकबर बिना किसी उत्तर की प्रतीक्षा किए कुएँ की जगत से नीचे उतरा और सड़क पर खड़े अपने सिपाहियों की ओल चला गया।
शहंशाह के वहाँ पहुँचते ही सब सावधान होकर खड़े हो गए और शहंशाह के घोड़े पर सवार होते ही वे सब भी अपने-अपने घोड़े पर सवार हो शहंशाह के पीछे चल पड़े।
रामकृष्ण ने देखा कि वह अर्दली, जो सराय को मलबे का ढेर बना गया था, शहंशाह के साथ नहीं था।
जब शहंशाह चला गया तो सब लोग राधा, मोहन, भगवती और गाँव से आए मजदूर, राजगीर रामकृष्ण को घेरकर खड़े हो गए।
राधा ने पूछा, ‘‘यह क्या हो रहा है?’’
‘‘राधा! समझ नहीं आ रहा। ऐसा मालूम होता है कि सुंदरी की माँ को यह बदमाश का बच्चा जानता था और अब इतने वर्ष के उपरांत इसे उसकी याद आई है।’’
‘‘मगर इसे पता कैसे चला कि सुंदरी किसकी लड़की है?’’
‘‘दो बातें विशेष हुई हैं। एक तो सुंदरी की माँ के गले के हार के नीचे लटक रहे नीलम के पीछे एक कागज निकला था। वह उस समय पढ़ा नहीं गया था। इसने पढ़ाया प्रतीत होता है उसमें उसका पता लिखा मालूम होता है।’’
‘‘एक दूसरी बात भी हो सकती है। वह पंडित जी आए थे, वह कह रहे थे कि वह शहंशाह से मिलते रहते हैं। वह उसे यहाँ की बात बताएँगे।’’
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