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उपन्यास >> प्रारब्ध और पुरुषार्थ

प्रारब्ध और पुरुषार्थ

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :174
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 7611

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प्रथम उपन्यास ‘‘स्वाधीनता के पथ पर’’ से ही ख्याति की सीढ़ियों पर जो चढ़ने लगे कि फिर रुके नहीं।


‘‘हुक्म कीजिए।’’

‘‘मुझे तुम्हारे साथ राज्य कर्मचारियों से किए सुलूक पर बहुत अफसोस है।’’

रामकृष्ण ने अभी भी काँपते हुए पूछा, ‘‘तो जहाँपनाह! यह सब आपकी आज्ञा के बिना हुआ है?’’

अकबर ने उत्तर नहीं दिया, ‘‘कितना नुकसान हुआ होगा?’’

‘‘अंदाज नहीं लगा सकता हुज़ूर! मेरे तीस वर्ष के खून-पसीने को एक करने से बना रैन बसेरा था। वह अब यह है।’’

रामकृष्ण ने लालसा-भरी दृष्टि से टूटी-फूटी सराय और गिरी हुई दीवारों की ओर देखकर कहा, ‘‘किसी पूर्व जन्म के कर्म का फल है। मैं किसी पर दोष नहीं लगाता। अपने को ही कोसता हूँ।’’

‘‘अच्छा, यह रखो। अभी यह रखो। मैं आगरा से मजदूर और राजगीर भेजूँगा और वे तुम्हारी सराय कुछ ही दिनों में बना देंगे। और तुम एक हफ्ते के बाद आगरा में हमसे मिलने आना।’’

इसमें उत्तर देने को कुछ भी नहीं था। रामकृष्ण अभी भी पाँव से सिर तक काँप रहा था। वह दयनीय दृष्टि से शहंशाह की ओर देखता रहा।

अकबर ने अपने उत्तरीय के नीचे से एक थैली, जो पर्याप्त भारी प्रतीत होती थी, निकाली और रामकृष्ण की ओर बढ़ा दी। इस समय राधा एक बड़ी-सी थाली में बीस-पच्चीस रोटियाँ और उनके साथ गुण लिए हुए वहाँ आ पहुँची और अपने पति को हाथ में एक थैली पकड़े हुए एक रईसी ठाट के व्यक्ति के सामने खड़ा देख स्तब्ध रह गई।

अकबर ने कहा, ‘‘हम सुंदरी और उसकी माँ की बाबत कुछ जानना चाहते हैं। देखो, एक हफ्ते के बाद आना और हमसे मिलना और यह परवाना है जिसे दिखाकर तुम हमारे पास पहुँच सकोगे।’’

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