उपन्यास >> प्रारब्ध और पुरुषार्थ प्रारब्ध और पुरुषार्थगुरुदत्त
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प्रथम उपन्यास ‘‘स्वाधीनता के पथ पर’’ से ही ख्याति की सीढ़ियों पर जो चढ़ने लगे कि फिर रुके नहीं।
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पाँच दिन के निरंतर परिश्रम से दुकान पर फूस का छप्पर डाल भट्टी पर चने, मक्की, मुरमुरे इत्यादि भुँजने लगे थे। एक अन्य छप्पर डालकर वहाँ रात-आराम का स्थान बन गया था।
प्रातः आधा प्रहर निर्माण-कार्य करते हुए, रामकृष्ण, उसके दोनों लड़के और गाँव के दो मजदूर सब कुएँ की जगत पर बैठे भोजन की प्रतीक्षा कर रहे थे। राधा सबके लिए मक्की की रोटियाँ सेंक रही थी। इस समय आगरे की ओर से चार घुड़सवार और कुएँ की जगत के समीप आ घोड़ों से उतर पड़े।
रामकृष्ण डरा कि पुनः कोई मुसीबत आई है। वह काँप उठा और परेशानी में अपने लड़कों का मुख देखने लगा।
घुड़सवारों में से एक ने अपने घोड़े की लगाम एक अन्य के हाथ में दे सबको कहा, ‘‘यहाँ से सौ कदम दूर चले जाओ।’’
रामकृष्ण इत्यादि सब कुएँ की जगत से उठ इन घुड़सवारों की ओर भयभीत देख रहे थे।
जब एक के अतिरिक्त अन्य सब घुड़सवार अपने घोड़ों की लगामें और आज्ञा देनेवाले व्यक्ति के घोड़े की लगाम पकड़ दूर सड़क पर चले गए तो वह घुड़सवार कुएँ की जगत पर आया और पूछने लगा, ‘‘रामकृष्ण कौन है?’’
रामकृष्ण ने भयभीत दृष्टि से अपने पाँच दिन के निर्माण-कार्य की ओर लालसा-भरी दृष्टि से देखा और काँपते हुए हाथों को जोड़ बोला, ‘‘हुज़ूर! मैं रामकृष्ण हूँ।’’
‘‘मैं, अकबर, इस मुल्क का बादशाह हूँ।’’
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