उपन्यास >> प्रारब्ध और पुरुषार्थ प्रारब्ध और पुरुषार्थगुरुदत्त
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प्रथम उपन्यास ‘‘स्वाधीनता के पथ पर’’ से ही ख्याति की सीढ़ियों पर जो चढ़ने लगे कि फिर रुके नहीं।
रामकृष्ण ने लड़की के अपहरण की कहानी बताई और फिर पिछले दिन सैनिकों के आकर वह सब कुछ तोड़-फोड़ करने की कहानी बता दी।
यात्री ने कहा, ‘‘दुबारा अपहरण के समय मैं वहाँ आगरा में ही ठहरा हुआ था। मालूम होता है कि चोर को मोर पड़ गए हैं। कोई उस लड़की को शहंशाह के हरम से ले भागा है। शहंशाह को तुम पर संदेह हुआ है और उसने तुम्हारी तलाशी ली है।’’
इतना कहते-कहते यात्री ने मुस्कराते हुए कहा, ‘‘देखो रामकृष्ण! इस जीवन के बचपन, यौवन और बुढ़ापे में तथा इस और भावी अनेकानेक जीवनों में एक वस्तु निरंतर उपस्थित रहती है। वह जीवात्मा है। वह न कभी पैदा होता है, न बालक, न युवा तथा न बूढ़ा होता है। सदा जवान रहता है और वह अपने कर्मों से धकेला जाता हुआ ऊँच-नीच पर चलता जाता है। इस कारण पुनः आरंभ करो। प्रत्येक नए जन्म पर यही होता है। प्रारब्ध साथ आता है और प्रत्येक बार टूटे मकान पर नया मकान बन जाता है।’’
रामकृष्ण इस सहानुभूति और साहस की बातों से उत्साहित हो बोला, ‘‘पंडित जी! भगवान ने चाहा तो छः मास में पुनः आप लोगों की सेवा करने के लिए यह सराय खड़ी कर दूँगा। जो बात पहले तीस वर्ष में कर सका था अब छः मास में कर सकूँगा।’’
‘‘और मैं आगरा जाया करता हूँ। इस अपहरणकर्ता से मुझे काम रहता है। अवसर मिला तो तुम्हारी बात वहाँ कहूँगा। शेष तो भगवान और तुम्हारे कर्मफल के अधीन है।’’
यात्री ने जल पिया। वह वहाँ भोजन कर रात-विश्राम किया करता था। आज तो वहाँ आराम करने का स्थान नहीं था इस कारण वह चल पड़ा। वह मथुरा की ओर से आया था और आगरा जा रहा था।
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