उपन्यास >> प्रारब्ध और पुरुषार्थ प्रारब्ध और पुरुषार्थगुरुदत्त
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प्रथम उपन्यास ‘‘स्वाधीनता के पथ पर’’ से ही ख्याति की सीढ़ियों पर जो चढ़ने लगे कि फिर रुके नहीं।
मोहन माँ को चलने के लिए कहने लगा। परंतु वह नहीं गई और तीनों रात-भर वहाँ ही रहे।
दिन चढ़ने से पूर्व रामकृष्ण जागा और स्नानादि से निवृत्त हो दुकान की ईंटें, चूना उठाकर उसे साफ करने लगा। उसने रात ही यह विचार कर लिया था कि वह उसके नए जीवन के आरंभ का बिंदु होगा।
आधा प्रहर काम करने पर उसे समझ आया कि दुकान का सब सामान मौजूद है। इसी समय भगवती भी आ गया। राधा भी पति के साथ लगी हुई थी।
वहाँ पर यात्री मध्याह्न के समय आने लगते थे। राधा ने टूटे-फूटे घर में से बरतन एकत्रित किए और चूल्हा-चौका ठीक कर पति और पुत्रों के लिए खाना तैयार किया।
मध्याह्न के समय चारों वहाँ बैठ भोजन कर रहे थे तो यात्री आने लगे। सब, जो पहले कभी उस मार्ग पर यात्रा कर चुके थे, सराय की वर्तमान दुर्दशा देख पूछते थे कि क्या हुआ और क्यों हुआ है।
रामकृष्ण अपनी दुःख की कथा संक्षेप में सुना देता था। भोजन कर कुएँ से जल निकाल पी ही रहे थे कि एक यात्री दरी-चादर लपेट बंडल बना कंधे से लटकाए वहाँ आया तो सब कुछ ध्वस्त देख खड़ा रह गया। सरायवाले को अपने बेटों के साथ कुएँ की जगत पर बैठ जल पीते देख वहाँ आ गया। यात्री ने पूछा, ‘‘रामकृष्ण! यह क्या हो गया है?’’
रामकृष्ण ने नाम से पुकारे जाने पर ध्यान से यात्री की ओर देखा तो पहचान गया। वह पहले भी आगरा जाता हुआ तथा वहाँ से लौटता हुआ सराय पर एक रात आराम करने के लिए ठहरा करता था। रामकृष्ण ने कहा, ‘‘पंडित जी! भगवान के कोप से ही यह हुआ है।’’
‘‘तो रात यह आँधी में उड़ गया है अथवा यहाँ भूचाल आया है?’’
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