उपन्यास >> प्रारब्ध और पुरुषार्थ प्रारब्ध और पुरुषार्थगुरुदत्त
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प्रथम उपन्यास ‘‘स्वाधीनता के पथ पर’’ से ही ख्याति की सीढ़ियों पर जो चढ़ने लगे कि फिर रुके नहीं।
‘‘बाबा! मेरी पत्नी अपने बच्चे को लेकर भागी तो मैं भी उसके पीछे चल पड़ा। हमें जाता देख भगवती भी लक्ष्मी के साथ चला आया। हम गाँव में हैं। मैं आपको भी वहाँ ले चलने के लिए आया हूँ।’’
‘‘माँ को ले जाओ। मैं तो यहाँ पर प्रातः देखूँगा कि क्या कुछ बिन लुटे रह गया है। जो कुछ भी मिल गया वह मेरे भावी जीवन की पूँजी होगी। यदि दिन चढ़ने पर यहाँ कोई नहीं होगा तो जो कुछ भी बचा-खुचा है, सड़क पर चलते लोग उठा ले जाएँगे।’’
‘‘गाँव का चौधरी कह रहा है कि आगरा जाकर फरियाद करनी चाहिए।’’
‘‘तो वह मूर्ख यह समझता है कि शहंशाह के अर्दली ने अपनी मर्जी से यह सब कुछ किया है।’’
‘‘नहीं मोहन! वहाँ जाने का कुछ लाभ नहीं। बचे हुए जीवन के पाँच-दस दिन व्यर्थ गँवाना नहीं चाहता। मैं कल से पुनः निर्माण करूँगा। यदि हिम्मत है तो तुम दोनों भाई आ जाना। फिर सराय खड़ी कर दूँगा।’’
मोहन और राधा ने कहा, ‘‘यहाँ खुले में सोने से तो जीवन का भय है।’’
‘‘देखो राधा! तुम्हारे विवाह से पहले मैं एक दिन अकेला गाँव से चला था। आगरा जाते हुए इस कुएँ की जगत पर आराम करने लगा तो भाग्य से प्रेरित यहाँ ही अपना घर बनाने का संकल्प कर बैठा। रात यहीं वीराने में रह गया। अगले दिन खेत में काम करनेवालों से फावड़ा माँग लाया और गाँव के भटियारे से चने उधाल ले आया। बस, जीवन आरंभ हो गया।’’
‘‘इसी प्रकार कल प्रातः से करूँगा। यद्यपि अब तीस वर्ष बूढ़ा हो गया हूँ। इस पर भी भगवान की कृपा से मन में साहस और शरीर में जान मालूम होती है।’’
‘‘तब से अब बहुत अच्छी अवस्था में हूँ। अब राधा है, तुम दोनों भी हो। कभी कल्याणी भी आएगा तो सहायता कर देगा। इन टूटे खंडहरों में भी व्यतीत जीवन का कुछ-न-कुछ बचा मिल जाएगा।’’
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