उपन्यास >> प्रारब्ध और पुरुषार्थ प्रारब्ध और पुरुषार्थगुरुदत्त
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प्रथम उपन्यास ‘‘स्वाधीनता के पथ पर’’ से ही ख्याति की सीढ़ियों पर जो चढ़ने लगे कि फिर रुके नहीं।
राधा निराश थी। टूटे खंडहरों की ईंटें पकड़ तकिया बना भूमि पर ही लेट गई। रात हो चुकी थी। यात्री तो सबसे पहले भाग गए थे।
मोहन और भगवती की ससुराल तो समीप गाँव में ही थी। मोहन रात को माता-पिता का समाचार लेने आया।
राधा को किसी के अँधेरे में वहाँ आने का शब्द सुनाई दिया तो वह लपककर उठकर बैठ गई। रामकृष्ण तो गहरी नींद में सो रहा था। राधा ने पूछा, ‘‘कौन?’’
‘‘माँ, मैं मोहन हूँ।’’
‘‘पत्नी कहाँ है?’’
‘‘अपनी माँ के घर में है। उसका बच्चा उसके साथ ही है। भगवती और लक्ष्मी भी गाँव में लक्ष्मी की माँ के घर में हैं। माँ! तुम भी वहाँ चलो।’’
‘‘मैंने तुम लोगों को सराय में ठहरे यात्रियों के साथ भागते देखा था। सिपाहियों ने समझा होगा कि तुम लोग भी यात्री हो।’’
‘‘माँ! यहाँ तो अब कुछ भी नहीं। यहाँ किसलिए पड़ी हो?’’
‘‘अपने पिता से पूछो।’’
‘‘परंतु वह तो गहरी नींद सो रहे हैं। उन्हें जगाऊँ?’’
‘‘मैं जगाती हूँ।’’
राधा ने पति को हिला-डुलाकर कहा, ‘‘ए जी! ए जी! मोहन आया है।’’
रामकृष्ण आँखें मलता हुआ उठा, ‘‘मोहन! तुम कहाँ थे?’’
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