उपन्यास >> प्रारब्ध और पुरुषार्थ प्रारब्ध और पुरुषार्थगुरुदत्त
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प्रथम उपन्यास ‘‘स्वाधीनता के पथ पर’’ से ही ख्याति की सीढ़ियों पर जो चढ़ने लगे कि फिर रुके नहीं।
‘‘नहीं हुजूर। यह सुंदरी की माँ का है।’’
‘‘तो तुम उसकी माँ नहीं हो?’’
‘‘मेरी सूरत-शक्ल से क्या मालूम होता है?’’
करीमखाँ ने ध्यान से राधा को देखा और पूछने लगा, ‘‘तो यह लड़की तुम्हारे पास कैसे आई?’’
राधा ने पंद्रह वर्ष पूर्व की सब कहानी सुना दी।
करीमखाँ लूट का सामान–रामकृष्ण का संचित कोष, सुंदरी की माँ की वस्तुएँ और निरंजन देव के दिए भूषण लेकर आगरा लौट गया।
आगरा से आए सिपाहियों के चले जाने के उपरांत रामकृष्ण और राधा आँसू बहाते हुए भग्न सराय की ईंट-पत्थरों पर बैठ गए।
जब सब कुछ वहाँ शांत हो गया तो राधा ने पूछा, ‘‘अब क्या होगा?’’
‘‘पुनः नया जन्म आरंभ होगा। कल से पुनः कुएँ पर बैठ जल पिलाऊँगा और चने बेच-बेचकर जीविका चलाऊँगा।’’
‘‘मुझमें तो अब हिम्मत नहीं रही। मैं तो यहां से चली जाना चाहती हूँ।’’
‘‘कहाँ जाना चाहती हो?’’
‘‘जहाँ इतना अन्याय और अत्याचार न हो।’’
‘‘वह स्थान भारतभूमि पर तो है नहीं। देखो राधा! तुम्हें कुछ नहीं करना। मुझे रोटी पकाकर खिला दिया करना। मैं कल से ही नया मकान बनाना आरंभ कर दूँगा।’’
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