उपन्यास >> प्रारब्ध और पुरुषार्थ प्रारब्ध और पुरुषार्थगुरुदत्त
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प्रथम उपन्यास ‘‘स्वाधीनता के पथ पर’’ से ही ख्याति की सीढ़ियों पर जो चढ़ने लगे कि फिर रुके नहीं।
करीमखाँ ने कहा, ‘‘जहाँपनाह! मुझे पक्का यकीन है कि नगर चैन के नौकर-चाकरों से में से कुछ की यह साजिश है।’’
अकबर ने कुछ विचार किया और उसी रात वह नगर चैन में स्वयं पहुँच पूछताछ करने लगा।
जमादार, जो अम्मी के पीछ मुंतजिम था, प्रातःकाल फाँसी चढ़ा दिया गया और शेष सब कर्मचारी नौकरी से निकाल दिए गए। करीमखाँ को हुक्म हो गया कि भटियारिन की सराय की तलाशी ली जाए।
सुंदरी के भागने के तीसरे दिन भटियारिन की सराय पर पचास सैनिक पहुँच गए।
पहले तलाशी ली गई और फिर रामकृष्ण तथा राधा इत्यादि से पूछताछ की गई। जब कुछ पता नहीं चला तो करीमखाँ ने सिपाहियों को हुक्म दे दिया, ‘‘सराय की जमीन को खोदकर पता करो। कहीं इन्होंने लड़की को किसी तहखाने में न छुपा रखा हो।’’
इस आज्ञा का अभिप्राय था कि पूर्ण सराय को बरबाद कर गिरा दिया जाए। नौकर-चाकर वहाँ से भागे। मोहन और भागवती तो अपनी पत्नियों के साथ पहले ही अपनी-अपनी ससुराल को चले गए थे। रामकृष्ण और राधा बंधी के रूप में थे। दोनों के देखते-देखते उनकी सराय की ईंट-से-ईंट बजा दी गई। उनका संचित कोष, सुंदरी की माँ का धन-भूषण और निरंजन देव का दिया सब कुछ लूट लिया गया।
लूट के माल में सुंदरी की माँ का एक गले का हार भी था। उस हार के साथ एक लॉकेट लटक रहा था। उसमें एक नीलम लगा था। करीमखाँ को संदेह हुआ कि उस नीलम के नीचे कुछ रखा है। उसने नीलम उखाड़कर देखा तो एक छोटा-सा कागज का पत्र निकला जिस पर संस्कृत भाषा में कुछ लिखा था।
करीमखाँ वह पढ़ नहीं सका। उसने राधा से पूछा, ‘‘यह हार तुम्हारा है?’’
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