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उपन्यास >> प्रारब्ध और पुरुषार्थ

प्रारब्ध और पुरुषार्थ

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :174
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 7611

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प्रथम उपन्यास ‘‘स्वाधीनता के पथ पर’’ से ही ख्याति की सीढ़ियों पर जो चढ़ने लगे कि फिर रुके नहीं।


नगर चैन में प्रातःकाल जमादार, जो अम्मी के स्थान पर वहाँ का प्रबंध कर रहा था, नगर चैन की सेविका मीना से पूछने लगा, ‘‘हमारा पंछी कैसा है?’’

‘‘कौन पंछी?’’

‘‘शहंशाह की आखिरी महबूबा।’’

‘‘मैं तो अपने घर से आ रही हूँ। आपको मुझसे ज्यादा पता होना चाहिए।’’

‘‘मैं तो भीतर जा नहीं सकता। जाओ, पता करो कि उसको कुछ चाहिए?’’

मीना भीतर गई तो फौरन ही लौट आई और बोली, ‘‘जमादार! सुंदरी भीतर नहीं है।’’

‘‘नहीं है?’’ जमादार तमककर उठ खड़ा हुआ और खतरे की घंटी बजा दी। नगर चैन के सब सेवक और सैनिक इकट्ठे हो गए। नगर चैन का घेरा डाल दिया गया। उसकी तलाशी ली गई और जब सुंदरी का कोई खुर-खोज नहीं मिला तो सूचना आगरा राजमहल में और अम्मी के घर भेजी गई।

मध्याह्नोत्तर अम्मी और करीमखाँ, शहंशाह का निजी अर्दली, आया और सब नौकरों से जिरह होने लगी।

दिन-भर जाँच-पड़ताल से भी जब कुछ पता नहीं चला तो फिर शहंशाह को सूचना भेज दी गई।

अकबर ने कहा, ‘‘भटियारिन की सराय का मुहासरः कर लो और उनसे पता करो। उन्होंने ही उसे भगाया है।’’

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