उपन्यास >> प्रारब्ध और पुरुषार्थ प्रारब्ध और पुरुषार्थगुरुदत्त
|
8 पाठकों को प्रिय 47 पाठक हैं |
प्रथम उपन्यास ‘‘स्वाधीनता के पथ पर’’ से ही ख्याति की सीढ़ियों पर जो चढ़ने लगे कि फिर रुके नहीं।
6
निरंजन देव जब नगर चैन से कई मील दूर निकल गया तो सुंदरी का भय कम हुआ। जब से वह अपने कमरे से निकली थी वह यही समझ रही थी कि किसी भी समय वह और उसका पति पकड़ लिए जा सकते हैं और फाँसी पर लटका दिए जा सकते हैं। ज्यों-ज्यों नगर चैन पीछे रहता जाता था, उसका भय कम होता जाता था। लगभग एक घंटा-भर इक्के को सरपट दौड़ते हो गया और पीछा करनेवाला कोई नहीं आया तो उसने साहस कर पूछ लिया, ‘‘हम किधर जा रहे हैं?’’
निरंजन ने घोड़ों को चाबुक लगा भगाते हुए कहा, ‘‘अभी मथुरा चल रहे हैं। वहाँ घोड़ों को आराम देकर दिल्ली, दिल्ली से मेरठ, सहारनपुर और हरिद्वार।’’
‘‘वहाँ किसलिए?’’
‘‘तुम्हें गंगा स्नान करा पवित्र कर अपने योग्य बनाने के लिए।’’
‘‘तो अब मैं अपवित्र हूँ क्या?’’
‘‘न जाने तुमने क्या-क्या खाया है और किस-किस से सहवास किया है?’’
‘‘आपके अतिरिक्त केवल अपने अपहर्ता से। उसने शराब पिला अर्ध चेतनावस्था में मुझसे व्यवहार किया था।’’
‘‘गंगा सब पापों का नाश कर देती है। इसी कारण वहाँ लिए जा रहा हूँ।’’
‘‘और मेरे माता-पिता?’’
‘‘उनसे भी मिलेंगे। परंतु हरिद्वार से लौटकर।’’
|