उपन्यास >> प्रारब्ध और पुरुषार्थ प्रारब्ध और पुरुषार्थगुरुदत्त
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प्रथम उपन्यास ‘‘स्वाधीनता के पथ पर’’ से ही ख्याति की सीढ़ियों पर जो चढ़ने लगे कि फिर रुके नहीं।
‘‘तो माजाजी, वह अँगूठी दे दीजिए जो मैंने उसे दी थी। वह मैंने स्वयं उसकी अँगुली पर पहनाई थी और उसे मैं पहचान के लिए ले जाना चाहता हूँ।’’
‘‘किससे पहचान कराओगे?’’
‘‘शाहंशाह की हरम में हमारे लोगों की पहुँच है। मैं सुंदरी से संपर्क बनाने का यत्न करूँगा।’’
‘‘तो करो। भगवान तुम्हारी सहायता करेगा। हमें भी बताना।’’
राधा ने सुंदरी के संदूक से उसकी अँगूठी निकाल निरंजन को दे दी और वह चला गया।
निरंजन ने सुंदरी का पता करना चाहा। उसने हरम की नौकरानियों से मेल-मुलाकात उत्पन्न की। पंद्रह दिन से ऊपर लगे ठीक पता चलने में।
एक खादिमा ने, जो नगर चैन की मुलाज़िमा अम्मी की लड़की थी, निरंजन को बताया कि दो महीने हुए शहंशाह एक मैले-कुचैले कपड़ों में एक भिखारिन को नगर चैन में लाए थे और अभी तक वह वहाँ बंदी के रूप में है।
खादिमा ने यह भी बताया कि एक रात ही शहंशाह उस भिखारिन के पास रहे हैं। फिर यहाँ आने की उनको फुरसत नहीं मिली।
निरंजन देव ने वहाँ की नौकरानियों से संपर्क बनाना आरंभ कर दिया। मीना मिली तो उसे उसने भारी घूस देकर भीतर की सब बात जान ली। तब वहाँ के जमादार और सफाई करनेवाले भंगियों के सरदार से साँठ-गाँठ लड़ाई और सुंदरी के भगाने का सफल प्रयास किया।
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