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उपन्यास >> प्रारब्ध और पुरुषार्थ

प्रारब्ध और पुरुषार्थ

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :174
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 7611

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प्रथम उपन्यास ‘‘स्वाधीनता के पथ पर’’ से ही ख्याति की सीढ़ियों पर जो चढ़ने लगे कि फिर रुके नहीं।


रात में निरंजन सराय में रहा और रात-भर सुंदरी से बातें करता रहा। प्रातः वह दो दिन में लौटने का वचन दे आगरा चला गया।

दो दिन वह नहीं आया तो सुंदरी ने सब कुछ स्वप्नवत् समझ वस्त्र-आभूषण उतार दिए और पुनः दुकान पर भाड़ भुँजने लगी।

निरंजन देव से विवाह हुए दो मास से ऊपर हो चुके थे कि उसका अपहरण हो गया। अब अपहरण हुए भी डेढ़ मास हो चुका था कि एक दिन निरंजन एक इक्के पर सवार भटियारिन की सराय पर पहुँचा और राधा, सुंदरी की माँ, को चनों की दुकान पर बैठे देख वहाँ आ खड़ा हुआ।

राधा ने उसे पहचाना तो पूछ लिया, ‘‘किसलिए आए हो?’’

‘‘अपनी पत्नी को ले जाने के लिए।’’

‘‘तुमने बहुत देर कर दी है। उसका मुल्क के एक बड़े व्यक्ति ने अपहरण कर लिया है।’’

निरंजन अवाक् मुख देखता रह गया। इस पर राधा ने अपहरण की पूर्ण कथा सुना दी।

‘‘तो वह अपनी इच्छा से नहीं गई?’’

‘‘अपनी इच्छा से जानेवाले का अपहरण किया नहीं कहा जाता। वह शोर मचाती रही। मोहन आदि उसको छुड़ाने के लिए जब तलवारें लिए बाहर निकले तो शाहंशाह उसे घोड़े पर लाद अपने साथियों सहित भाग गए।’’

‘‘तो मेरे दिए वस्त्र-भूषण भी वह पहने थी?’’

‘‘नहीं। जब तुम कहे अनुसार तीन-चार दिन तक नहीं आए तो उसने तुम्हारे दिए वस्त्र-भूषण उतार अपने संदूक में रख दिए थे और भटियारिन के वस्त्र पहन काम करने लगी थी।’’

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