उपन्यास >> प्रारब्ध और पुरुषार्थ प्रारब्ध और पुरुषार्थगुरुदत्त
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प्रथम उपन्यास ‘‘स्वाधीनता के पथ पर’’ से ही ख्याति की सीढ़ियों पर जो चढ़ने लगे कि फिर रुके नहीं।
‘‘हाँ। आज से दस दिन पूर्व मथुरा से आ रहा था तो कुएँ पर जल पीने ठहरा था। तुम जल पिला रहे थे। जल पीते हुए मेरी दृष्टि तुम्हारी लड़की पर पड़ी तो मैं चने खरीदने उसके पास जा पहुँचा।’’
‘‘चने लेते हुए मैंने कहा, ‘‘मैं लखपति का बेटा हूँ और तुमसे विवाह करूँगा।’’
‘‘उसने मेरे मुख पर देखा और बोली, ‘तो मेरे माता-पिता से बात करो। मुझसे क्या कहने आए हो?’’
‘‘तुम मानो तो उनको राजी कर लूँगा।’’
‘‘उसने कहा था, ‘जिसके हाथ में वे मेरा हाथ पकडा देंगे, मैं उसके साथ चल दूँगी।’’
‘‘तब ठीक है।’’ मैं इतना कह उसी दिन आगरा गया और अब उससे विवाह के लिए तैयार होकर आया हूँ।’’
‘‘क्या तौयारी कर आए हो?’’
‘‘अपनी माँ को राजी कर लिया है। उसने कहा है कि यदि किसी मिट्टी के पुतले को भी बीवी बना ले जाऊँगा तो वह उसे घर पर रख लेंगी। इस कारण अब विवाह करूँगा। फिर आगरा में जाकर पिता को कहूँगा। तब इसे यहाँ से ले जाऊँगा।’’
‘‘तो तुम्हारे माता-पिता विवाह पर नहीं आएँगे?’’
‘‘बाबा, हम क्षत्रिय हैं। तुम भटियारे हो। परंतु जब एक बार विवाह हो गया तो फिर इनकार नहीं कर सकेंगे। माँ मेरा पक्ष लेगी और मैं अपने पुरोहित को विवाह कराने के लिए साथ लाया हूँ।’’
रामकृष्ण मुख देखता रह गया। उसने राधा से सम्मति की। राधा ने मोहन इत्यादि से पूछा। सुंदरी से भी पूछा गया और सायंकाल विवाह हो गया। निरंजन देव अपनी पत्नी के लिए आभूषण और वस्त्र लाया था। विवाह से पूर्व वे उसे पहनाए गए थे।
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