उपन्यास >> प्रारब्ध और पुरुषार्थ प्रारब्ध और पुरुषार्थगुरुदत्त
|
8 पाठकों को प्रिय 47 पाठक हैं |
प्रथम उपन्यास ‘‘स्वाधीनता के पथ पर’’ से ही ख्याति की सीढ़ियों पर जो चढ़ने लगे कि फिर रुके नहीं।
‘‘परंतु परमात्मा को दिए धन की और सौंदर्य की रक्षा भी करनी चाहिए।’’ राधा ने निराशा से उद्विग्न होने के कारण कह दिया।
‘‘वही यात्री जो कह रहा था कि हमसे कर लेते हैं, उन्हीं को हमारी रक्षा करनी चाहिए थी, पीछे बता रहा था कि उन लोगों ने हमारी सहायता का यत्न किया था, परंतु भूल यह हुई कि समय पर रक्षा की तैयारी नहीं की थी। हम प्रजा के लोगों से धन बटोरते रहे और वह सब धन अपने भोग-विलास में व्यय करते रहे। देश और जाति की रक्षा का उचित प्रबंध नहीं किया था।’’
‘‘जहाँ बाबर के पास तोपें थीं वहाँ हमारे देश के राजपूतों के पास केवल तलवारें थीं। यहाँ के राजाओं ने युद्ध की तैयारी नहीं की थी। वे भूल गए कि युद्ध जीतने के लिए शांति के काल में तैयारी की जाती है।’’
राधा इतनी गूढ़ बात को समझ नहीं सकी थी। इससे मौन रही। समय व्यतीत होता गया। एक दिन वही युवक आ पहुंचा जिससे सुंदरी का विवाह किया गया था।
विवाह के दिन भी युवक एकाएक ही आया था और रामकृष्ण से बोला, ‘‘बाबा! सुंदरी का विवाह कर दो।’’
‘‘किससे?’’ रामकृष्ण का प्रश्न था।
‘‘मुझसे?’’
‘‘और तुम कौन हो?’’
‘‘आगरा के एक जौहरी का लड़का हूँ। तुम्हारी लड़की को आभूषण से लाल-पीली कर दूँगा।’’
रामकृष्ण को संदेह हुआ तो पूछने लगा, ‘‘सुंदरी से भी बात की है?’’
|