उपन्यास >> प्रारब्ध और पुरुषार्थ प्रारब्ध और पुरुषार्थगुरुदत्त
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प्रथम उपन्यास ‘‘स्वाधीनता के पथ पर’’ से ही ख्याति की सीढ़ियों पर जो चढ़ने लगे कि फिर रुके नहीं।
रामकृष्ण ने विस्मय से कह दिया, ‘‘यही बात तुमने तब कही थी जब निरंजन सुंदरी से विवाह का प्रस्ताव करने आया था।’’
‘‘और जानती हो, मैंने क्या कहा था। मैं भी उस दिन ईश्वर का धन्यवाद कर रहा था जिस दिन मैं अपने गाँव से अकेला यहाँ वीराने में कुएँ की जगत पर रात गहरी नींद सोता रहा था। मैं भी कहता था कि ईश्वर का धन्यवाद है कि मेरे पास एक भी पैसा नहीं जो चोर-डाकू लेने आएगा।’’
‘‘मगर भाग्यवान! अगले ही दिन मैं यत्न करने लगा था कि मेरे पास धन-दौलत एकत्रित हो। पहले एक वर्ष मैंने अकेले ही घोर परिश्रम किया था।
‘‘तब चोर-डाकू से डर नहीं था। अब हमारे कोष में पाँच सहस्र स्वर्ण मुद्राएँ हैं। अब मैं कभी नहीं कहता कि ईश्वर का धन्यवाद इस कारण है कि मैं निर्धन हूँ और कोई चोर-डाकू इसे लूटनेवाला नहीं आएगा। अब तो मैं ईश्वर का धन्यवाद करता हूँ कि उसने मुझे बल और बुद्धि दी है कि मैंने यह सब कुछ निर्माण कर लिया है।’’
‘‘परंतु सौंदर्य तो परिश्रम से पैदा नहीं हो सकता।’’
‘‘उस दिन पुरोहित जी सुंदरी को देखकर ही बता रहे थे कि पुण्यकर्मों के फल से ही वह इतनी सुंदर मुझ कुरूप के घर उत्पन्न हो गई है।
‘‘मैं मन में विचार कर रहा था कि वह हमारे घर में तो पैदा नहीं हुई। इस पर भी सुंदर तो है। पूर्वजन्म के कर्मों से ही है। मैं भी नित्य परमात्मा से प्रार्थना किया करता हूँ कि मुझे अगले जन्म में अति सुंदर और ओजस्वी शरीर मिले।’’
‘‘परंतु अब अकबर जैसा कोई आपका भी अपहरण कर लेगा।’’
‘‘इस पर भी मैं सुंदर होना चाहता हूँ जैसे चोर-डाकुओं के भय पर भी धनी होने की इच्छा और प्रयत्न किया था।’’
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