उपन्यास >> प्रारब्ध और पुरुषार्थ प्रारब्ध और पुरुषार्थगुरुदत्त
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प्रथम उपन्यास ‘‘स्वाधीनता के पथ पर’’ से ही ख्याति की सीढ़ियों पर जो चढ़ने लगे कि फिर रुके नहीं।
इस सूचना से तो सब निराश भीतर लौट आए। राधा दुकान पर जा पहुँची और मोहन, भगवती अपने-अपने कमरे में जाने लगे तो उसी राजपूत सिपाही ने कहा, ‘‘इस आग को यहाँ इस वीरान सराय में क्यों रख छोड़ा था? कोई भी उसका अपहरण कर सकता था।’’
रामकृष्ण ने अपनी सामान्य बुद्धि से बात कह दी, ‘‘यदि राजा ही डाका डालने लगे तो परमात्मा ही हम गरीबों की रक्षा कर सकता है।’’
‘‘परमात्मा ने ही तो अकबर को राजा बनाया है।’’
‘‘नहीं जी।’’ उस यात्री ने कहा जिसने सिपाही से पूछा था कि सुंदरी ने उसके प्रस्ताव का क्या उत्तर दिया था। उसने राजपूत सिपाही की ओर देखकर कहा, ‘‘कभी चोर-डाकू भी कुछ काल के लिए राजा बन जाते हैं। यह तब ही होता है जब गाँव अथवा नगर के लोग डाकुओं का विरोध नहीं कर सकते।’’
‘‘यह बेचारा सरायवाला कैसे विरोध करता?’’ अभी भी राजपूत ने ही कहा। इस समय सब सराय में एक पेड़ के नीचे आ खड़े हुए थे। मोहन, भगवती, लोहार और तीन-चार यात्री थे। कुछ अंतर पर मोहन और भगवती की पत्नियाँ और सराय की सेविका खड़ी समझने का यत्न कर रही थी कि क्या हो गया है।
दूसरे यात्री ने कहा, ‘‘यह सरायवाले अथवा प्रजा का काम नहीं। यह तो प्रजा पर राजा बनानेवालों का काम था। प्रजा उनको कर देती है और उस कर लेनेवाले को ही प्रजा को इन चोर-डाकुओं से बचाने का प्रबंध करना चाहिए।’’
राजपूत सिपाही ने कंधों को झटका दे असंतोष प्रकट किया और अपनी कोठरी की ओर चल दिया
सायंकाल तक सराय में सब शांत हो गए। दुकान बंद कर राधा भीतर अपने पति के पास आई तो गंभीर विचार में निमग्न अपने पति को देख बोली, ‘‘भगवान का धन्यवाद है कि हम सब कुरूप हैं।’’
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