उपन्यास >> प्रारब्ध और पुरुषार्थ प्रारब्ध और पुरुषार्थगुरुदत्त
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प्रथम उपन्यास ‘‘स्वाधीनता के पथ पर’’ से ही ख्याति की सीढ़ियों पर जो चढ़ने लगे कि फिर रुके नहीं।
‘‘कर सकते हैं। इनसान की रूह अमल करने में आजाद है। इस पर भी यदि इनसान किस्मत में लिखे विधि के विधान के खिलाफ कुछ करता है तो उसके भले-बुरे का जिम्मेदार वह होता है। किस्मत मानने में तो उसकी जिम्मेदारी नहीं होता।’’
‘‘मगर क्या हमें वही कुछ कहना चाहिए जो आप कह रहे हैं?’’
‘‘नहीं जहाँपनाह! किस्मत आपसे वह कुछ कराना चाहेगी जो उसे कराना है। हाँ, आप उसका विरोध किसी दुनियावी और इनसान की बनाई बातों की वजह से करेंगे तो आप उसके भले-बुरे नतीज़ों के जिम्मेदार होंगे।
‘‘शायद खुदा परवरदिगार की इस मुल्क में आपको हिंदू समाज का पैगम्बर बनाने की तजवीज है। मगर आप मसनूई इनसान की बनाई बातों के असर कुछ ऐसा कर सकते हैं जो खुद की आपके पुण्यकर्मों के फल की योजना में नहीं है। तब आप पैगम्बर की हैसियत नहीं पा सकेंगे। आप अपनी किस्मत का फल तो पाएँगे, मगर सिर्फ सुख-आराम और जाओहशमत जो आपके पुण्यकर्मों का नतीजा है, ईश्वरीय योजना से मिलनेवाले फल को आप नहीं पा सकेंगे।’’
अकबर इस सबको नहीं समझा। मगर वह दिल से चाहता था कि मुल्क के कोटि-कोटि जन-मानस का वह पूज्य बन जाए। लोग उसे मसीहा मान पूजा करें।
पहली भेंट में शहंशाह ने मोदी को हुक्म दिया कि पंडित को एक सौ अशरफी दे दो। मोदी ने एक रेशमी थैली पंडित जी के सामने रख दी। बात होती रही और जाते समय पंडित जी ने थैली उठाई।
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