उपन्यास >> प्रारब्ध और पुरुषार्थ प्रारब्ध और पुरुषार्थगुरुदत्त
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प्रथम उपन्यास ‘‘स्वाधीनता के पथ पर’’ से ही ख्याति की सीढ़ियों पर जो चढ़ने लगे कि फिर रुके नहीं।
‘‘समझने की कोशिश कर रहा हूँ।’’ वास्तव में अकबर सब समझ गया था और वह पंडित जी को बताना नहीं चाहता था। विभूतिचरण, जो इस पुर्जे की बात रामकृष्ण सरायवाले से सुन चुका था, समझ रहा था कि यह अपहृत लड़की की माँ की कथा है। इस पर भी वह जानता नहीं था कि वह कौन औरत थी और किसके साथ उसने वासनामय कुछ क्षण व्यतीत किए थे।
एक बात स्पष्ट थी कि लिखनेवाली कोई विदुषी स्त्री है। भाषा शुद्ध और सुंदर अक्षर में लिखी थी।
विभूतिचरण ने कहा, ‘‘आज्ञा हो तो इसके विषय में अपनी विद्या का प्रयोग करूँ?’’
‘‘नहीं। इसकी जरूरत नहीं है।’’ अकबर अपने रहस्य को पंडित के सम्मुख खोलना नहीं चाहता था।
इस पर भी पंडित ने आँखें मूँद चिंतन किया और अपने थैले से कागज, कलम, दवात निकाल कुंडली बनाने लगा।
अकबर काँप उठा। वह पंडित की विद्या का चमत्कार देख चुका था, इस कारण उसने कहा दिया, ‘‘पंडित जी! जाने दीजिए। यह एक नाचीज़ के लिए अपने जीवन का अमूल्य समय खराब न करिए।’’
बात बदलने के लिए अकबर ने कह दिया, ‘‘मेरे जंगी मशीर बीरबल कह रहे हैं कि मालवा पर आक्रमण करना चाहिए।’’
पंडित जी सुंदरी की कुंडली को छोड़ मालवा पर आक्रमण के विषय में गिनती-मिनती करने लगे।
पंडित जी ने घड़ी-भर गणना करने में लगा दिया और तदनंतर सिर ऊँचा कर कह दिया, ‘‘मालवा दो वर्ष तक विजय नहीं हो सकता। शक्ति का अपव्यय होगा।’’
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