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उपन्यास >> प्रारब्ध और पुरुषार्थ

प्रारब्ध और पुरुषार्थ

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :174
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 7611

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प्रथम उपन्यास ‘‘स्वाधीनता के पथ पर’’ से ही ख्याति की सीढ़ियों पर जो चढ़ने लगे कि फिर रुके नहीं।


अकबर ने नगर सरायवाले को हुक्म दे रखा था कि पंडित जी से सराय का भाड़ा नहीं लेना। उनकी सेवा इत्यादि का मूल्य भी नहीं लेना। पंडित जी ने इसमें न आपत्ति की और न इसकी माँग की।

अकबर इन दिनों अपने राज्य को विस्तार देने के लिए पड़ोसी राज्यों पर आक्रमण कर रहा था। प्रत्येक आक्रमण से पूर्व पंडित जी से नजूम लगवाया जाता था और आक्रमण की योजना पंडित जी के मुहूर्त निकालने पर बनती थी।

इसी प्रकार के एक काम पर विभूतिचरण आया था तो भटियारिन की सराय पर अपहरण की घटना हो गई थी। इसके दो-ढाई मास उपरांत जब पंडित आया तो वहाँ पर उजाड़ स्थान देख विस्मय करता हुआ पहुँचा। उस दिन वह रात देर से पहुँचा और अगले दिन नियमानुसार मध्याह्नोत्तर उसने राजमहल के बाहर पहुँच नाम लिखकर भीतर भेजा। उसे तुरंत बुला लिया गया।

अकबर ने उस दिन पहला ही प्रश्न किया, ‘‘पंडित जी! यह देखिए, कौन-सी भाषा है?’’

अकबर ने वही कागज का पुर्ज़ा सामने कर दिया जो सुंदरी की माँ के हार में नीलम के पीछे छुपाकर रखा हुआ था

पंडित जी ने देखा और पढ़कर कहा, ‘‘यह संस्कृत भाषा है। किसी विदुषी स्त्री का यह लिखा हुआ है। उसने लिखा है कि मैंने अपने जीवन के कुछ क्षण वासनाभिभूत हो रसमय बनाए थे और उस पाप का फल भोगने जा रही हूँ। मैं किसी वीरान स्थान पर बच्चा पैदा करूँगी और उसे उसके भाग्य पर छोड़ विदा हो जाऊँगी।

– कल्याणी
विधवा-पंडित शशिकुमार वात्स्यायन
बरौठा।’’


अकबर सुनकर स्तब्ध बैठा रह गया। विभूतिचरण ने मुस्कराते हुए कहा, ‘‘तो हुज़ूर नहीं समझे?’’

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