उपन्यास >> प्रारब्ध और पुरुषार्थ प्रारब्ध और पुरुषार्थगुरुदत्त
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प्रथम उपन्यास ‘‘स्वाधीनता के पथ पर’’ से ही ख्याति की सीढ़ियों पर जो चढ़ने लगे कि फिर रुके नहीं।
‘‘वहाँ पर परमात्मा बैठा है और वह आपको ऐसा करने को कह रहा है। ये मुल्ला-मौलवी आपकी और परमात्मा की बात को नहीं जानते। इस वजह से दोनों में इख्तिलाफ राय है।’’
‘‘तो मन की बात कर लूँ?’’
‘‘मेरी विद्या कहती है कि इससे आपको सुख मिलेगा।’’
अकबर ने बात बदल दी। उसने कहा, ‘‘मगर पंडित जी! मेरे मोदी ने आपके लिए कुछ नज़र-न्याज़ रखी थी।’’
‘‘मैं अपनी विद्या को बेचता नहीं हूँ। उसका कुछ भी दाम नहीं।’’
‘‘मगर और सब लोग तो हमसे माँग-माँग कर लेते हैं।’’
‘‘तो उनको दीजिए। मैं आपको मना नहीं कर रहा। लोग मुझे भी देते हैं। परंतु वे मेरी आवश्यकताओं को स्वयं देखते हैं और उनके पूरा करने का यत्न करते हैं। आप भी कर सकते हैं।’’
अकबर इस पंडित के मंतक (मीमांसा) को समझ नहीं सका। वह मुख देखता रह गया। इस पर विभूतिचरण ने कहा, ‘‘हुज़ूर! यह हाथ देने के लिए बना है। जब भी इसके पास देने के लिए होता है तो यह देता है; वहाँ जहाँ मेरे मन को देना उचित समझ आता है। परंतु यह हाथ लेने के लिए कभी फैलाया नहीं गया। यदि किसी को समझ आता है कि मुझे कुछ देना चाहिए तो जहाँ कमी देखता है वहाँ दे जाता है।’’
पंडित जब भी बुलाया जाता था, पैदल आता था और पैदल लौटता था। यही कारण था कि आगरा से दस मील के अंतर पर भटियारिन की सराय उसका एक पड़ाव बन गया था।
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