उपन्यास >> प्रारब्ध और पुरुषार्थ प्रारब्ध और पुरुषार्थगुरुदत्त
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प्रथम उपन्यास ‘‘स्वाधीनता के पथ पर’’ से ही ख्याति की सीढ़ियों पर जो चढ़ने लगे कि फिर रुके नहीं।
‘‘परमात्मा आपको ऐसा करने की जुर्रत और अक्ल दे।’’
‘‘आप देखेंगे कि हम ऐसा कर सकेंगे।’’
‘‘ईश्वर आपकी सहायता करे!’’
‘‘मगर हम आपकी मदद चाहते हैं।’’
‘‘मैं तो उसका ही बंदा हूँ। बिना उसकी मंजूरी के मैं एक तिनका भी नहीं तोड़ सकता।’’
‘‘देखिए पंडित जी! मैं यह चाहता हूँ कि आप इस शहजादे की तालीम अपने हाथ में लें। इसके लिए महारानी जी इसरार कर रही हैं।’’
‘‘मैं आपका और बेगम बहन का हुक्म मानने से इंकार नहीं कर सकता। मगर यह आप कर नहीं सकेंगे।’’
‘‘तो कैसे हम कर सकेंगे?’’
‘‘इसके लिए आपको अपने अमल में बुनियादी तबदीली लानी होगी।’’
‘‘क्या?’’
‘‘एक तो यह कि आपको महल की नौकरानियाँ बदलनी होंगी। उन सबको वजीफा दे वापस काबुल भेजना होगा जो वहाँ से आपके साथ आई हैं। दूसरे, आपको अपनी फौज के सालारे जंग और सालारे अज़ीम बदलने होंगे। तीसरे, आपको अपने दरबारियों में भी तबदीली करनी होगी। ये सब बड़े-से-बड़े शहंशाह के पाँव में बेड़ियाँ हैं। आपने ये सब ऐसे मुकर्रिर कर रखे हैं जिनसे आप इसलाम से बँधे हुए हैं। आपके हाथ बँधे होने से शहजादे की तरबीयत भी इन्हीं लोगों के हाथ में देनी होगी।’’
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