उपन्यास >> प्रारब्ध और पुरुषार्थ प्रारब्ध और पुरुषार्थगुरुदत्त
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प्रथम उपन्यास ‘‘स्वाधीनता के पथ पर’’ से ही ख्याति की सीढ़ियों पर जो चढ़ने लगे कि फिर रुके नहीं।
‘‘लड़का होगा।’’
‘‘और वह हमारी सल्तनत का वारिस होगा?’’
‘‘हाँ, हुज़ूर! मगर उसे खून की नदी पार करनी पड़ेगी।’’
‘‘ओह!’’ जहाँपनाह ने गंभीर हो पूछा, ‘‘इससे बचा नहीं जा सकता क्या?’’
‘‘बचने का एक तरीका है। मगर यह शहज़ादे के करने की ही बात है। इसलिए वह करेगा या नहीं, अभी नहीं बताया जा सकता। बहुत कुछ तालीम और तरबीयत पर मुनहसिर है।’’
अकबर उसका मुख देखता रह गया। कुछ विचार कर बोला, ‘‘अगर हम उसे आपका शागिर्द बना दें तो क्या ठीक रहेगा?’’
‘‘आप बनाएँगे नहीं। वजह यह है कि आप अपने घर में खुदमुखत्यार नहीं है। अभी तो आपकी अम्मी जिंदा हैं, आपकी फूफी हैं और दूसरे रिश्तेदार भी हैं। इनके अलावा आपके फौजी सिपहसालार सबके सब मुतअस्सिब मुसलमान हैं। अगर आप शहजादे को मेरी तालीम में डाल देंगे तो ये सब जाल जो आपने अपने चारों ओर बिछा रखे हैं, आपको आजादी से कुछ भी करने नहीं देंगे।’’
‘‘हम समझते हैं कि आपका खयाल गलत है।’’
‘‘हो सकता है। मगर यकीन से तो तब ही कह सकता हूँ जब बच्चा पैदा होगा और आपसे तथा उसकी माँ से उसे अलहदा कर दिया जाएगा।’’
‘‘लाहौल विलाह! पंडित, तुम हमें नहीं जानते। हमारी मर्जी की मुखालिफत करनेवाले को हम तहतेग करने की तौफीक रखते हैं।’’
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