उपन्यास >> धरती और धन धरती और धनगुरुदत्त
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बिना परिश्रम धरती स्वयमेव धन उत्पन्न नहीं करती। इसी प्रकार बिना धरती (साधन) के परिश्रम मात्र धन उत्पन्न नहीं करता।
‘‘तो क्या करोगी? तुम नौकरी तो कर नहीं सकतीं। यदि करोगी तो ससुर और जेठ की नाक कटवाओगी।’’
‘‘मैं क्या करूँगी, अभी नहीं जानती। जब कोई बात नाक कटाने की करूँगी, तो मना कर दीजियेगा। इतना तो स्पष्ट ही है कि मैं इस प्रकार बैठी-बैठी अपने बच्चों का जीवन व्यर्थ नहीं गँवा सकती।’’
‘‘घर पर कुछ पैसा-टका जमा नहीं है क्या?’’
‘‘एक फूटी कौड़ी नहीं है। सब कुछ, यहाँ तक कि अपने हाथ की चूड़ियाँ तक, उनकी चिकित्सा में व्यय कर चुकी हूँ।’’
‘‘और यह, जो बुरे दिन का रुपया आया है?’’
‘‘सब ढाई सौ रुपया था। उसमें से तीस रुपये संस्कार के दिन मोहन की माँ से उधार लिए थे, सो दे दिये हैं। शेष दो सौ बीस रुपये रखे हैं। उनसे कब तक जिया जा सकता है?’’
रामरखी की सास को कोई उत्तर नहीं सूझा। इस कारण वह चुप रही और अगले दिन से रामरखी ने नीचे बैठना बन्द कर दिया। उसने मन में कई योजनाएँ बनाईं परन्तु सब किसी-न-किसी कारण से अव्यावहारिक मान छोड़ दीं।
उसने मोहन की माँ से राय की। मोहन की माँ ने मोहन के पिता से पूछा और मोहन के पिता ने सिंगर की सीने वाली मशीनों के एजेण्ट से बात की। उस सब परामर्श का परिणाम यह निकला कि धनराज के देहान्त के एक मास के भीतर, एक सौ बीस रुपये की सिंगर की सीने की मशीन और बीस रुपये का तख्ता, कैंची, गुनिया इत्यादि रामरखी ने मोल ले लिया। साथ ही उस एजेण्ट ने कपड़े की कटाई की कुछ बातें सिखाने के लिए एक औरत रामरखी के पास दस रुपये महीने पर भेज दी।
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