उपन्यास >> धरती और धन धरती और धनगुरुदत्त
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बिना परिश्रम धरती स्वयमेव धन उत्पन्न नहीं करती। इसी प्रकार बिना धरती (साधन) के परिश्रम मात्र धन उत्पन्न नहीं करता।
‘‘उनका देहान्त हो चुका है। ग्यारह वर्ष से माँ कठोर परिश्रम कर हमारा पालन-पोषण करती रही है। मैं अब पढ़-लिखकर माँ को आराम देना चाहता हूँ।’’
‘‘तो माँ से हस्ताक्षर करा दो।’’
‘‘पर काम तो मुझे करना है। उस बेचारी को इसमें क्यों घसीटूँ? आप मान जाइये। मैं आपकी भूमि तो उठाकर ले नहीं जाऊँगा। केवल जंगल की लकड़ी का ही तो प्रश्न है। मैं आपकी उजरत देकर ही उसको उठाऊँगा। जब लगान देने का समय आएगा, तब मैं बालिका हो जाऊँगा।’’
मैनेजर विचार कर रहा था कि बहुत विज्ञापन देने पर भी कोई प्रार्थी भूमि लेने आया नहीं; यह बालक आया है, तो क्या इसे इन्कार कर दे? इससे उसको भारी दुःख हो रहा था। इसपर उसने कहा, ‘‘राजा साहब से पूछ लूँ।’’
‘‘मुझको उसके सामने उपस्थित होकर स्वयं अपनी प्रार्थना करने का अवसर दीजिये।’’ फकीरचन्द का कथन था।
उसी सायंकाल फकीरचन्द को राजा साहब के सम्मुख उपस्थित कर दिया गया। राजा साहब प्रार्थी को केवल बालक-मात्र देख आश्चर्य करने लगा। मैनेजर से सब बात समझ राजा साहब ने कहा, ‘‘देखो बालक ! भूमि देने में कोई आपत्ति नहीं। पट्टा तो तुम्हारी माँ के नाम ही दिया जा सकता है। यह कानून है। पट्टा अभी लिख दिया जायगा। तुम उसकी नकल अपने घर भेजकर माँ को लिख दो कि उसपर हस्ताक्षर कर यहाँ भेज दें। यह बहुत ही साधारण-सी बात है। इस पर भी क्या तुम यह काम कर सकोगे?’’
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