ई-पुस्तकें >> 1857 का संग्राम 1857 का संग्रामवि. स. वालिंबे
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संक्षिप्त और सरल भाषा में 1857 के संग्राम का वर्णन
हमारा धर्म भ्रष्ट करवाकर हमें ईसाई धर्म स्वीकार करने के लिए सरकार मजबूर कर रही है, इसीलिए नयी बंदूकें लायी गयी हैं—यह धारणा देसी सिपाहियों के मन में पक्की हो गयी।लगभग उन्हीं दिनों क्रीमिया में रूस और इंग्लैंड के बीच युद्ध हुआ था। उस लड़ाई की खबरें दिल्ली तक पहुंचने लगीं। दिल्ली के आसपास के साधु, बैरागी और मौलवी, फकीर आदि यात्रा करते हुए गांवों में पहुँच जाते। वहाँ गांववासियों को समझाते कि, ‘‘इस युद्ध में इंग्लैंड की विजय हुई है। लेकिन फिरंगियों के असंख्य सैनिक मारे गये हैं। हजारों अंग्रेज महिलाएं विधवा हो गयी हैं। सरकार संकट में पड़ गयी है। अब इन विधवाओं का क्या करें? कुछ अधिकारियों ने इन विधवाओं को हिंदुस्तान भेजने की सलाह दी है। उनकी सलाह के अनुसार अब इन विधवाओं की शादी हिंदुस्तान के सरदार, रियासतदारों के लड़कों से रचायी जायेगी। इन विवाहों के बाद उनकी संतति ईसाई बन जायेगी। इसका सीधा लाभ ईसाई धर्म को मिलेगा। अब आनेवाले दिनों में हिंदुस्तान के सभी रियासतों पर ईसाई धर्मावलंबी लोगों का वर्चस्व बढ़ जायेगा।’’
इस प्रचार के फलस्वरुप जनता में विचार मंथन होने लगा। अब इस संकट का मुकाबला कैसे किया जाये? गांवों और फौजी बैरकों में फैलकर यह चर्चा अब अंग्रेज अफसरों के बंगलों तक पहुँचने लगी। अंग्रेज महिला वर्ग में चिंता का माहौल पैदा हो गया।
अंग्रेज पुरुष वर्ग घर में कहने लगे, ‘‘बगावत की बातें करना आसान है, लेकिन बगावत करना इतना आसान नहीं है। देसी सिपाहियों का यह बकवास है। अगर वे बगावत करेंगे तो न घर के रहेंगे न घाट के। बड़े साहब के सामने उनका कोई बस नहीं चलेगा। सबको अपनी नौकरी से हाथ धोना पड़ेगा। डरने की कोई बात नहीं है।’’
कुछ अंग्रेज अफसर अपने ही भाइयों से नाराज हुए। हिंदुस्तानी लोगों के बारे में कंपनी सरकार बेफिक्र थी। सर चार्ल्स नेपियर को यह नजरिया बिलकुल पसंद नहीं आया। उन्हें हिंदुस्तान की पूरी जानकारी थी। उन्होंने इस देश और जनता को करीब से देखा था। इसलिए उन्होंने कहा, ‘‘जब कभी असंतोष की ज्वाला भड़क उठेगी तब उसे बुझाना आसान नहीं होगा। आसमान टूट पड़ेगा, तभी आपको असलियत का पता चलेगा। इस असंतोष का चेहरा भयानक हो सकता है।’’
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