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ग़बन (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :544
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8444

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ग़बन का मूल विषय है महिलाओं का पति के जीवन पर प्रभाव


‘आप ही सोचिए, मुझे तो कुछ नहीं सूझता।’

‘क्यों नहीं उससे दो-तीन गहने माँग लेते? तुम चाहो तो ले सकते हो, हमारे लिए मुश्किल है।’

‘मुझे शर्म आती है।’

‘तुम विचित्र आदमी हो, न खुद माँगोगे, न मुझे माँगने दोगे तो आखिर यह नाव कैसे चलेगी? मैं एक बार नहीं हजार बार कह चुका कि मुझसे कोई आशा मत रक्खो। मैं अपने आखिरी दिन जेल में नहीं काट सकता। इसमें शर्म की क्या बात है, मेरी समझ में नहीं आता। किसके जीवन में ऐसे सुअवसर नहीं आते? तुम्हीं अपनी माँ से पूछो।

जागेश्वरी ने अनुमोदन किया–मुझसे तो नहीं देखा जाता था कि अपना आदमी चिन्ता में पड़ा रहे, मैं गहने पहने बैठी रहूँ। नहीं तो आज मेरे पास भी गहने न होते? एक-एक करके सब निकल गये। विवाह में पाँच हज़ार से कम का चढ़ाव नहीं गया था; मगर पाँच ही साल में सब स्वाहा हो गया। तब से एक छल्ला बनवाना भी न नसीब हुआ।

दयानाथ जोर देकर बोले–शर्म करने का यह अवसर नहीं है। इन्हें माँगना ही पड़ेगा।

रमानाथ ने झेंपते हुए कहा–मैं माँग तो नहीं सकता, कहिए उठा लाऊँ।

यह कहते-कहते लज्जा, क्षोभ और अपनी नीचता के ज्ञान से उसकी आँखें सजल हो गयीं।

दयानाथ ने भौंचक्के होकर कहा–उठा लाओगे उससे छिपाकर?

रमानाथ ने तीव्र कंठ से कहा–और आप क्या समझ रहे हैं?

दयानाथ ने माथे पर हाथ रख लिया, और एक क्षण के बाद आहत कंठ से बोले–नहीं मैं ऐसा न करने दूँगा। मैंने जाल कभी नहीं किया, और न कभी करूँगा। वह भी अपनी बहू के साथ ! छिः छिः, जो काम सीधे से चल सकता है, उसके लिए यह फरेब? कहीं उसकी निगाह पड़ गयी तो समझते हो, वह तुम्हें दिल में क्या समझेगी? माँग लेना इससे कहीं अच्छा है।

रमानाथ–आपको इससे क्या मतलब। मुझसे चीजें ले लीजियेगा; मगर जब आप जानते थे, यह नौबत आयेगी, तो इतने जेवर ले जाने की जरूरत ही क्या थी? व्यर्थ की विपत्ति मोल ली। इससे कई लाख गुना अच्छा था कि आसानी से जितना ले जा सकते, उतना ही ले जाते। उस भोजन से क्या लाभ कि पेट में पीड़ा होने लगे? मैं तो समझ रहा था कि आपने कोई मार्ग निकाल लिया होगा। मुझे क्या मालूम था कि आप मेरे सिर यह मुसीबतों की टोकरी पटक देंगे। वरना मैं उन चीजों को कभी न ले जाने देता।

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