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गल्प समुच्चय (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :255
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8446

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गल्प-लेखन-कला की विशद रूप से व्याख्या करना हमारा तात्पर्य नहीं। संक्षिप्त रूप से गल्प एक कविता है


आरम्भ के चारों युद्धों में बिना प्रयास बाहुबली ही विजयी हुए। बाहुबली इस विजय से विशेष उल्लसित नहीं दिखाई देते थे, न भरत विशेष उदास। मल्लयुद्ध अन्तिम युद्ध था और उसके समय प्रजा की उत्सुकता इस भाई-भाई के द्वेष-हीन युद्ध में बहुत बढ़ गई थी।

मल्लयुद्ध में कुछ देर के बाद बाहुबली ने भरत को दोनों हाथों पर ऊपर उठा लिया। इस समय दर्शकों के प्राण कण्ठ में बसे थे। वे प्रतिपल आशंका करने लगे कि चक्रवर्ती भरत अब धरती पर चित आ पड़ते हैं। किन्तु बाहुबली ने धीमे-धीमे अपने हाथों को नीचे किया और भरत पृथिवी पर सावधान खड़े दिखाई दिये। तदनन्तर नतशिर होकर बाहुबली ने दोनों हाथों से अपने बड़े भाई के चरण छुए।

भरत ने भी बाहुबली को अपनी छाती से लगा लिया, कहा–बाहुबली, विजयी होओ। मुझे तुम पर गर्व है और तुम्हारी विजय पर हर्षित हूँ। तुम सामर्थ्यशाली बनो।

बाहुबली ने कहा–यह आप क्या कहते हैं? आप ज्येष्ठ हैं, और मैं एक क्षण के लिए भी राज्य नहीं चाहता।

भरत ने कहा–भाई बाहुबली, वह तुम्हारा है। तुम उसके विजेता हो, उसके पात्र हो। और मैं अपना हृदय दिखा सकूँ, तो तुम जानो, मैं कितना प्रसन्न हूँ। तुम राजा बनो, मुझे अमात्य बनाओ, सेनापति बनाओ, अथवा जो चाहो सेवा लो।

बाहुबली ने हाथ जोड़कर कहा–भाई, मुझे राज्य की इच्छा नहीं है। इस विषय में आप राज्य–पालन का कर्तव्य मुझ पर न डालें। मैं दीक्षा लेना चाहता हूँ। मुझे राज्य आदि नहीं चाहिये।

भरत ने बहुत कहा। परन्तु बाहुबली दीक्षा लेकर वन की ओर चले गये। भरत चुपचाप राज्य-रक्षा और राजस्व पालन में लग गये।

बाहुबली ने घोर तपश्चरण किया–अति दुर्द्धर्ष, अति कठोर, अति निर्मम। वर्षों वे एक पैर से खड़े रहे। महीनों निराहार यापन किये। सुदीर्घकाल तक अखण्ड मौन साधे रक्खा। बरसों बाहर की ओर आँख खोलकर देखा तक नहीं।

उनकी इस तपस्या की कीर्ति दिग्दिगंत में फैल गई। देश-देश से लोग उनके दर्शन को आने लगे। भक्तों की संख्या न थी। उनकी महिमा और पूजा का परिमाण न था।

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