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गल्प समुच्चय (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :255
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8446

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गल्प-लेखन-कला की विशद रूप से व्याख्या करना हमारा तात्पर्य नहीं। संक्षिप्त रूप से गल्प एक कविता है


लोगों का अनाश्वस्त पाकर खिन्न स्मित्र के साथ भगवान ने फिर कहा– बाहुबली के मन में से एक फाँस नहीं निकली है। वही एक शल्य उसकी मुक्ति में काँटा है। उसके चित्त में यह खटक बनी हुई है कि जिस भूमि पर वह खड़ा है वह भरत के राज्यान्तर्गत है।

बाहुबली के कानों में जब यह बात पहुँची, मन का काँटा एकदम निकल गया। जैसे एक साथ ही वे स्वच्छ हो गये। आँखें खुल गईं, मौन–मुख मुस्करा उठा। उस मुस्कराहट में मन की अवशिष्ट ग्रन्थि खुलकर बिखर गई और मन मुकुलित हो गया।

उनके चहुँ ओर वन में उस समय असंख्य भक्त नर-नारियों का मेला–सा लगा था। उन सबको अब उन्होंने अस्वीकार नहीं किया, उनका आवाहन किया। अपने आराध्य की यह प्रसन्न–वदन–मुद्रा देखकर लोगों के हर्ष का पारावार न था। बाहुबली ने अपने को उनके निकट हर तरह से सुगम बना लिया।

कहा– भाइयों, तुमने इस बाहुबली को आराध्य माना। उसकी आराध्यता समाप्त होती है। तपस्या बन्द होती है। तुमने शायद मेरे कार्य-क्लेश की पूजा की है। अब वह तुम मुझसे नहीं पाओगे। इसलिए मुझे आशा है कि तुम मुझे पूजा देना छोड़ दोगे। और यदि मेरी अप्राप्यता का तुम आदर करते थे, तो वह भी नहीं पाओगे। मैं सबके प्रति सदा सुप्राप्त रहने की स्थिति में ही अब रहूँगा।

बाहुबली ने निर्मल कैवल्य पाया था। ग्रन्थियाँ सब खुल गई थीं। अब उन्हें किसी की ओर से बन्द रहने की आवश्यकता न थी। वे चहुँ ओर खुले, सब के प्रति सुगम रहने लगे।

यह देख धीरे-धीरे भक्तों की भीड़ उजड़ने लगी और परम योगी बाहुबली की शरण में अब शान्ति के लिए विरल ज्ञानी और जिज्ञासु लोग ही आते थे।

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