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गल्प समुच्चय (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :255
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8446

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गल्प-लेखन-कला की विशद रूप से व्याख्या करना हमारा तात्पर्य नहीं। संक्षिप्त रूप से गल्प एक कविता है


एक बार के चक्कर में जब मैं पुल के निकट पहुँचा, तो मैं चौंक पड़ा। मैंने देखा, वहाँ किसी भद्र-कुल की एक नौजवान लकड़ी खड़ी थी। अकेली। उसका ध्यान मेरी ओर नहीं था। झरने के पानी की मधुर ध्वनि ने मेरे चलने की आवाज को अपने भीतर छिपा लिया था, इससे बहुत निकट पहुँच जाने पर भी वह यह न जान सकी कि उसके निकट कोई अन्य व्यक्ति भी मौजूद है और मुझे तो तुम जानते ही हो। कितना भूला हुआ-सा चलता हूँ। मुझे तब तक उस लड़की की उपस्थिति का ज्ञान नहीं हुआ, जब तक मैं उसके बिलकुल निकट पहुँच नहीं गया।

मैं चौंका, और उधर उसी समय उस लड़की की निगाह मुझ पर पड़ी शायद बिलकुल ही अकस्मात। वह भी चौंक गई। क्षण-भर के लिए सहसा उसकी और मेरी आँखें आपस में मिल गईं।

बस भाई कमल बात इतनी ही है, और कुछ भी नहीं। मैं उसी क्षण वापस लौट पड़ा था, और जान पड़ता है, वह लड़की भी वहाँ से चल दी थी; मगर इस जरा सी बात ने जाने क्यों मेरे दिल पर बहुत-अजीब सा प्रभाव डाला है। इस बात को हुए अब ९ घंटे बीत चुके हैं और इन ९ घंटों में चौंकी हुई हरिणी की-सी वे आँखें मेरे मानसिक नेत्रों के सामने बीसियों बार घूम गई हैं।

तुम सोचते होगे इन सब में कोई खास बात जरूर है। और नहीं तो यह लड़की कम से कम कोई असाधारण सुन्दरी तो अवश्य होगी; मगर वास्तविकता नहीं है। इस लड़की के चेहरे में असाधारणता जरा भी नहीं थी। लम्बा कद मामूली चेहरा, गेहुँआ रंग और भी कोई बात उसमें ऐसी नहीं थी, जिसे असाधारण कहा जा सके अपनी...नगरी में हम लोग इस कन्या से अत्यधिक रूप-सौन्दर्य बीसियों युवतियों को रोज देखते हैं। मेरी परिचित कुमारियों में भी कितनी ही सौन्दर्य की दृष्टि से उससे कहीं बड़-चढ़कर हैं। यहाँ गुलमर्ग में भी उससे बहुत अधिक सुन्दरियों को मैंने काफी बड़ी संख्या में देखा है। फिर भी; कुछ समझ में नहीं आता इस ‘फिर भी’ का क्या कारण है! आज इतना ही।
तुम्हारा
स.

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