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गल्प समुच्चय (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :255
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8446

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गल्प-लेखन-कला की विशद रूप से व्याख्या करना हमारा तात्पर्य नहीं। संक्षिप्त रूप से गल्प एक कविता है


रामू की माँ ने अपने चारों ओर देखा–सभी पंच पण्डित जी के साथ। पण्डित परमसुख मुसकरा रहे थे। उन्होंने कहा–रामू की माँ, एक तरफ तो बहू के लिए कुम्भीपाल नरक है और दूसरी तरफ तुम्हारे जिम्मे थोड़ा–सा खर्चा है। सो उससे मुँह न मोड़ो।

एक ठंठी साँस लेते हुए रामू की माँ ने कहा, अब जो नाच नचाओगे, नाचना ही पड़ेगा।

पण्डित परमसुख जरा कुछ बिगड़ कर बोले–रामू की माँ! यह तो खुशी की बात है, अगर तुम्हें यह अखरता है तो न करो–मैं चला। इतना कहकर पण्डितजी ने पोथी-पत्रा बटोरा।

‘अरे पण्डितजी, रामू की माँ को कुछ नहीं अखरता– बेचारी को कितना दुःख है–बिगड़ो न।’–मिसरानी छन्नू की दादी और किसनू की माँ ने एक स्वर में कहा।

रामू की माँ ने पण्डित जी के पैर पकड़े–और पण्डितजी ने अब जमकर आसन जमाया।

‘और क्या हो?’

‘एक्कीस दिन के पाठ के एक्कीस रुपये और एक्कीस दिन तक दोनों बखत पाँच-पाँच ब्राह्मणों का भोजन करवाना पड़ेगा।’–कुछ रुककर पण्डित परमसुख ने कहा–सो इसकी चिन्ता न करो , मैं अकेले दोनों समय भोजन कर लूंगा और मेरे अकेले भोजन करने से पाँच ब्राह्मण के भोजन का फल मिल जायगा।

‘यह तो पण्डित ठीक कहते हैं, पण्डितजी की तोंद तो देखो’–मिसरानी ने मुसकराते हुए पंडित पर व्यंग किया।

‘अच्छा तो फिर प्रायश्चित का प्रबन्ध करवाओ रामू की माँ, ग्यारह तोला सोना निकालो, मैं उसकी बिल्ली बनवा लाऊँ–दो घण्टे में मैं बनवाकर लौटूँगा तब तक सब पूजा प्रबन्ध कर रखो–और देखो, पूजा के लिए–’

पण्डितजी की बात खतम भी न हुई थी कि महरी हाँफती हुई कमरे में घुस आई और सब लोग चौंक उठे। रामू की माँ ने घबड़ाकर कहा–अरी क्या हुआ री!

महरी ने लड़खड़ाते स्वर में कहा–माँ जी, बिल्ली तो उठकर भाग गई।

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