उपन्यास >> गोदान’ (उपन्यास) गोदान’ (उपन्यास)प्रेमचन्द
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‘गोदान’ प्रेमचन्द का सर्वाधिक महत्वपूर्ण उपन्यास है। इसमें ग्रामीण समाज के अतिरिक्त नगरों के समाज और उनकी समस्याओं का उन्होंने बहुत मार्मिक चित्रण किया है।
‘कुछ मुँह से कहेगी, क्या बात हुई?’
‘मेरे भाई-बाप को कोई क्यों गाली दे?’
‘किसने गाली दी, तेरे भाई-बाप को?’
‘जाकर अपने घर में पूछ!’
‘चलेगी तभी तो पूछूँगा?’
‘तू क्या पूछेगा? कुछ दम भी है। जाकर अम्माँ के आँचल में मुँह ढाँककर सो। वह तेरी माँ होगी। मेरी कोई नहीं है। तू उसकी गालियाँ सुन। मैं क्यों सुनूँ? एक रोटी खाती हूँ, तो चार रोटी का काम करती हूँ। क्यों किसी की धौंस सहूँ? मैं तेरा एक पीतल का छल्ला भी तो नहीं जानती!’
राहगीरों को इस कलह में अभिनय का आनन्द आ रहा था; मगर उसके जल्द समाप्त होने की कोई आशा न थी। मंजिल खोटी छोटी थी। एक-एक करके लोग खिसकने लगे। गोबर को पुरुष की निर्दयता बुरी लग रही थी। भीड़ के सामने तो कुछ न कह सकता था। मैदान खाली हुआ, तो बोला–भाई मर्द और औरत के बीच में बोलना तो न चाहिए, मगर इतनी बेदरदी भी अच्छी नहीं होती। पुरुष ने कौड़ी की-सी आँखें निकालकर कहा–तुम कौन हो? गोबर ने निःशंक भाव से कहा–मैं कोई हूँ; लेकिन अनुचित बात देखकर सभी को बुरा लगता है। पुरुष ने सिर हिलाकर कहा–मालूम होता है, अभी मेहरिया नहीं आयी, तभी इतना दर्द है!
‘मेहरिया आयेगी, तो भी उसके झोंटे पकड़कर न खीचूँगा।’
‘अच्छा, तो अपनी राह लो। मेरी औरत है, मैं उसे मारूँगा, काटूँगा। तुम कौन होते हो बोलने-वाले! चल जाओ सीधे से, यहाँ मत खड़े हो।’
गोबर का गर्म खून और गर्म हो गया। वह क्यों चला जाय। सड़क सरकार की है। किसी के बाप की नहीं है। वह जब तक चाहे वहाँ खड़ा रह सकता है। वहाँ से उसे हटाने का किसी को अधिकार नहीं है।
पुरुष ने ओठ चबाकर कहा–तो तुम न जाओगे? आऊँ?
गोबर ने अँगोछा कमर में बाँध लिया और समर के लिए तैयार होकर बोला–तुम आओ या न आओ। मैं तो तभी जाऊँगा, जब मेरी इच्छा होगी।
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