लोगों की राय

उपन्यास >> गोदान’ (उपन्यास)

गोदान’ (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :758
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8458

Like this Hindi book 7 पाठकों को प्रिय

54 पाठक हैं

‘गोदान’ प्रेमचन्द का सर्वाधिक महत्वपूर्ण उपन्यास है। इसमें ग्रामीण समाज के अतिरिक्त नगरों के समाज और उनकी समस्याओं का उन्होंने बहुत मार्मिक चित्रण किया है।


‘तो मालूम होता है, हाथ पैर तुड़वा के जाओगे।’

‘यह कौन जानता है, किसके हाथ-पाँव टूटेंगे।’

‘तो तुम न जाओगे?’

‘ना।’

पुरुष मुट्ठी बाँधकर गोबर की ओर झपटा। उसी क्षण युवती ने उसकी धोती पकड़ ली और उसे अपनी ओर खींचती हुई गोबर से बोली–तुम क्यों लड़ाई करने पर उतारू हो रहे हो जी, अपनी राह क्यों नहीं जाते। यहाँ कोई तमाशा है। हमारा आपस का झगड़ा है। कभी वह मुझे मारता है, कभी मैं उसे डाँटती हूँ। तुमसे मतलब।

गोबर यह धिक्कार पाकर चलता बना। दिल में कहा–यह औरत मार खाने ही लायक है।

गोबर आगे निकल गया, तो युवती ने पति को डाँटा–तुम सबसे लड़ने क्यों लगते हो। उसने कौन-सी बुरी बात कही थी कि तुम्हें चोट लग गयी। बुरा काम करोगे, तो दुनिया बुरा कहेगी ही; मगर है किसी भले घर का और अपनी बिरादरी का ही जान पड़ता है। क्यों उसे अपनी बहन के लिए नहीं ठीक कर लेते?

पति ने सन्देह के स्वर में कहा–क्या अब तक क्वाँरा बैठा होगा?’

तो पूछ ही क्यों न लो?’

पुरुष ने दस कदम दौड़कर गोबर को आवाज दी और हाथ से ठहर जाने का इशारा किया। गोबर ने समझा, शायद फिर इसके सिर भूत सवार हुआ, तभी ललकार रहा है। मार खाये बिना न मानेगा। अपने गाँव में कुत्ता भी शेर हो जाता है लेकिन आने दो। लेकिन उसके मुख पर समर की ललकार न थी। मैत्री का निमन्त्रण था। उसने गाँव और नाम और जात पूछी। गोबर ने ठीक-ठीक बता दिया। उस पुरुष का नाम कोदई था।

कोदई ने मुस्कराकर कहा–हम दोनों में लड़ाई होते-होते बची। तुम चले आये, तो, मैंने सोचा, तुमने ठीक ही कहा। मैं नाहक तुमसे तन बैठा। कुछ खेती-बारी घर में होती है न?

गोबर ने बताया, उसके मौरूसी पाँच बीघे खेत हैं और एक हल की खेती होती है।’

मैंने तुम्हें जो भला-बुरा कहा है, उसकी माफी दे दो भाई! क्रोध में आदमी अन्धा हो जाता है। औरत गुन-सहूर में लच्छिमी है, मुदा कभी-कभी न जाने कौन-सा भूत इस पर सवार हो जाता है। अब तुम्हीं बताओ, माता पर मेरा क्या बस है?  जन्म तो उन्होंने दिया है, पाला-पोसा तो उन्होंने है। जब कोई बात होगी, तो मैं जो कुछ कहूँगा, लुगाई ही से कहूँगा। उस पर अपना बस है। तुम्हीं सोचो, मैं कुपद तो नहीं कह रहा हूँ। हाँ, मुझे उसका बाल पकड़कर घसीटना न था; लेकिन औरत जात बिना कुछ ताड़ना दिये काबू में भी तो नहीं रहती। चाहती है, माँ से अलग हो जाऊँ। तुम्हीं सोचो, कैसे अलग हो जाऊँ और किससे अलग हो जाऊँ। अपनी माँ से? जिसने जनम दिया? यह मुझसे न होगा। औरत रहे या जाय।’

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book