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उपन्यास >> गोदान’ (उपन्यास)

गोदान’ (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :758
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8458

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‘गोदान’ प्रेमचन्द का सर्वाधिक महत्वपूर्ण उपन्यास है। इसमें ग्रामीण समाज के अतिरिक्त नगरों के समाज और उनकी समस्याओं का उन्होंने बहुत मार्मिक चित्रण किया है।


‘कह, बुरा क्यों मानूँगी?’

‘न कहूँगी, कहीं तुम बिगड़ने न लगो?’

‘कहती हूँ, कुछ न बोलूँगी, कह तो।’

‘तुम्हें झुनिया को घर में रखना न चाहिये था।’

‘तब क्या करती? वह डूबी मरती थी।’

‘मेरे घर में रख देती। तब तो कोई कुछ न कहता।’

‘यह तो तू आज कहती है। उस दिन भेज देती, तो झाड़ू लेकर दौड़ती!’

‘इतने खर्च में तो गोबर का ब्याह हो जाता।’

‘होनहार को कौन टाल सकता है पगली! अभी इतने ही से गला नहीं छूटा भोला अब अपनी गाय के दाम माँग रहा है। तब तो गाय दी थी कि मेरी सगाई कहीं ठीक कर दो। अब कहता है, मुझे सगाई नहीं करनी, मेरे रुपए दे दो। उसके दोनों बेटे लाठी लिये फिरते हैं। हमारे कौन बैठा है, जो उससे लड़े! इस सत्यानासी गाय ने आकर चौपट कर दिया।’

कुछ और बातें करके पुनिया आग लेकर चली गयी। होरी सब कुछ देख रहा था। भीतर आकर बोला–पुनिया दिल की साफ है।

‘हीरा भी तो दिल का साफ था?’

धनिया ने अनाज तो रख लिया था; पर मन में लज्जित और अपमानित हो रही थी। यह दिनों का फेर है कि आज उसे यह नीचा देखना पड़ा।

‘तू किसी का औसान नहीं मानती, यही तुझमें बुराई है।’

‘औसान क्यों मानूँ? मेरा आदमी उसकी गिरस्ती के पीछे जान नहीं दे रहा है?  फिर मैंने दान थोड़े ही लिया है। उसका एक-एक दाना भर दूँगी।

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