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उपन्यास >> गोदान’ (उपन्यास)

गोदान’ (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :758
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8458

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‘गोदान’ प्रेमचन्द का सर्वाधिक महत्वपूर्ण उपन्यास है। इसमें ग्रामीण समाज के अतिरिक्त नगरों के समाज और उनकी समस्याओं का उन्होंने बहुत मार्मिक चित्रण किया है।


मगर पुनिया अपनी जिठानी के मनोभाव समझकर भी होरी का एहसान चुकाती जाती थी। जब यहाँ अनाज चुक जाता, मन दो मन दे जाती; मगर जब चौमासा आ गया और वर्षा न हुई, तो समस्या अत्यन्त जटिल हो गयी। सावन का महीना आ गया था और बगूले उठ रहे थे। कुओं का पानी भी सूख गया था और ऊख ताप से जली जा रही थी। नदी से थोड़ा-थोड़ा पानी मिलता था; मगर उसके पीछे आये दिन लाठियाँ निकलती थीं। यहाँ तक कि नदी ने भी जवाब दे दिया। जगह-जगह चोरियाँ होने लगीं, डाके पड़ने लगे। सारे प्रान्त में हाहाकार मच गया। बारे कुशल हुई कि भादों में वर्षा हो गयी और किसानों के प्राण हरे हुए। कितना उछाह था उस दिन! प्यासी पृथ्वी जैसे अघाती ही न थी और प्यासे किसान ऐसे उछल रहे थे मानो पानी नहीं, अशर्फियाँ बरस रही हों। बटोर लो, जितना बटोरते बने। खेतों में जहाँ बगूले उठते थे, वहाँ हल चलने लगे। बालवृन्द निकल-निकलकर तालाबों और पोखरों और गड़हियों का मुआयना कर रहे थे। ओहो! तालाब तो आधा भर गया, और वहाँ से गड़हिया की तरफ दौड़े।

मगर अब कितना ही पानी बरसे, ऊख तो बिदा हो गयी। एक-एक हाथ ही होके रह जायगी, मक्का और जुआर और कोदो से लगान थोड़े ही चुकेगा, महाजन का पेट थोड़े ही भरा जायगा। हाँ, गौओं के लिए चारा हो गया और आदमी जी गया।

जब माघ बीत गया और भोला के रुपए न मिले, तो एक दिन वह झल्लाया हुआ होरी के घर आ धमका और बोला–यही है तुम्हारा कौल? इसी मुँह से तुमने ऊख पेरकर मेरे रुपए देने का वादा किया था? अब तो ऊख पेर चुके। लाओ रुपए मेरे हाथ में!

होरी जब अपनी विपित्त सुनाकर और सब तरह चिरौरी करके हार गया और भोला द्वार से न हटा, तो उसने झुँझलाकर कहा–तो महतो, इस बखत तो मेरे पास रुपए नहीं हैं और न मुझे कहीं उधार ही मिल सकते हैं। मैं कहाँ से लाऊँ? दाने-दाने की तंगी हो रही है। विश्वास न हो, घर में आकर देख लो। जो कुछ मिले, उठा ले जाओ।

भोला ने निर्मम भाव से कहा–मैं तुम्हारे घर में क्यों तलासी लेने जाऊँ और न मुझे इससे मतलब है कि तुम्हारे पास रुपये हैं या नहीं। तुमने ऊख पेरकर रुपये देने को कहा था। ऊख पेर चुके। अब मेरे रुपए मेरे हवाले करो।

‘तो फिर जो कहो, वह करूँ?’

‘मैं क्या कहूँ?’

‘मैं तुम्हीं पर छोड़ता हूँ।’

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