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कर्मभूमि (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :658
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8511

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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…

दूसरा भाग

उत्तर की पर्वतश्रेणियों के बीच एक छोटा-सा रमणीक पहाड़ी गाँव है। सामने गंगा किसी बालिका की भाँति हँसती, उछलती, नाचती गाती, दौड़ती चली जाती है। पीछे ऊँचा पहाड़ किसी वृद्ध योगी की भाँति जटा बढ़ाये, शान्त, गम्भीर, विचारमग्न खड़ा है। यहाँ गाँव मानो उसकी बाल-स्मृति है, आमोद-विनोद से रंजित, या कोई युवावस्था का सुनहरा मधुर स्वप्न। अब भी उन स्मृतियों को हृदय में सुलाए हुए, उस स्वप्न को छाती से चिपकाये हुए है।

इस गाँव में मुश्किल से बीस-पचीस झोंपड़े होंगे। पत्थर के रोड़ों को तले-ऊपर रखकर दीवारें बना ली गयी हैं। उन पर छप्पर डाल दिया गया है। द्वारों पर बनकट की टट्टियाँ हैं। इन्हीं काबुकों में इस गाँव की जनता अपने गाय-बैलों, भेड़-बकरियों के लिए अनन्त से विश्राम करती चली आती है।

एक दिन संध्या के समय एक साँवला-सा, दुबला-पतला युवक मोटा कुरता, ऊँची धोती और चमरौधे जूते पहने, कन्धे पर टुलिया-डोर रखे, बग़ल में एक पोटली दबाये इस गाँव में आया एक बुढ़िया से पूछा–‘क्यों माता, यहाँ परदेशी को रातभर रहने का ठिकाना मिल जायेगा?

बुढ़िया सिर पर लकड़ी का गट्ठा रखे, एक बूढ़ी गाय को हार की ओर से हाँकती चली आती थी। युवक को सिर से पाँव तक देखा, पसीने से तर, सिर और मुँह पर गर्द जमी हुई, आँखें भूखी, मानो जीवन में कोई आश्रय ढूँढ़ता फिरता हो। दयार्द्र होकर बोली–‘यहाँ तो सब रैदास रहते हैं भैया!’

अमरकान्त इसी भाँति महीनों में देहातों का चक्कर लगाता चला आ रहा है। लगभग पचास छोटे-बड़े गाँवों को वह देख चुका है, कितने ही आदमियों से उसकी जान-पहचान हो गयी है, कितने ही उसके सहायक हो गये हैं, कितने ही भक्त बन गये हैं। नगर का वह सुकुमार युवक दुबला हो गया है; पर धूप और लू, आँधी और वर्षा, भूख और प्यास सहने की शक्ति उसमें प्रखर हो गयी है। भावी जीवन की यही उसकी तैयारी है, यही तपस्या है। वह ग्रामवासियों की सरलता और सहृदयता, प्रेम और सन्तोष से मुग्ध हो गया है। ऐसे सीधे-सादे, निष्कपट मनुष्यों पर आये दिन जो अत्याचार होते रहते हैं, उन्हें देखकर उसका ख़ून खौल उठता है। जिस शान्ति की आशा उसे देहाती जीवन की ओर खींच लायी थी, उसका यहाँ नाम भी न था। घोर अन्याय का राज्य था और अमर की आत्मा इस राज्य के विरुद्ध झण्डा उठाये फिरती थी।

अमर ने नम्रता से कहा–‘मैं जात-पाँत नहीं मानता, माताजी। जो सच्चा है, वह चमार भी हो, तो आदर के जोग है; जो दग़ाबाज, झूठा, लम्पट हो, वह ब्राह्मण भी हो, तो आदर के जोग नहीं। लाओ, लकड़ियों का गट्ठा मैं लेता चलूँ।

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