उपन्यास >> कर्मभूमि (उपन्यास) कर्मभूमि (उपन्यास)प्रेमचन्द
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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…
उसने बुढ़िया के सिर से गट्ठा उतारकर अपने सिर पर रख लिया।
बुढ़िया ने आशीर्वाद देकर पूछा–‘कहाँ जाना है बेटा?’
‘यों ही माँगता-खाता हूँ माता, आना-जाना कहीं नहीं है। रात को सोने की जगह तो मिल जायेगी?’
‘जगह की कौन कमी है भैया, मन्दिर के चौतरे पर सो रहना। किसी साधु-सन्त के फेर में तो नहीं पड़ गये हो? मेरा भी एक लड़का उनके जाल में फँस गया। फिर कुछ पता न चला। अब तक कई लड़को का बाप होता।’
दोनों गाँव में पहुँच गये। बुढ़िया ने अपनी झोंपड़ी की टट्टी खोलते हुए कहा–‘लाओ, लकड़ी रख दो यहाँ। थक गये हो, थोड़ा-सा दूध रखा है, पी लो। और सब गोरू तो मर गये बेटा। यही गाय रह गयी है। एक पावभर दूध दे देती है। खाने को तो पाती नहीं, दूध कहाँ से दे?’
अमर ऐसे सरल स्नेह के प्रसाद को अस्वीकार न कर सका। झोंपड़ी में गया, तो उसका हृदय काँप उठा। मानो दरिद्रता छाती पीट-पीटकर रो रही है। और हमारा उन्नत समाज विलास में मग्न है। उसे रहने को बँगला चाहिए; सवारी को मोटर। इस संसार का विध्वंस क्यों नहीं हो जाता?
बुढ़िया ने दूध एक पीतल के एक कटोरे में उँडेल दिया और आप घड़ा उठाकर पानी लाने चली। अमर ने कहा–‘मैं खींच लाता हूँ माता, रस्सी तो कुएँ पर होगी?’
‘नहीं बेटा, तुम कहाँ जाओगे पानी भरने? एक रात के लिए आ गये, तो मैं तुमसे पानी भराऊँ?’
बुढ़िया हाँ हाँ करती रह गयी। अमरकान्त घड़ा लिए कुएँ पर पहुँच गया। बुढ़िया से न रहा गया। वह भी उसके पीछे-पीछे गयी।
कुएँ पर कई औरतें पानी खींच रही थीं। अमरकान्त को देखकर एक युवती ने पूछा–‘कोई पाहुने हैं क्या सलोनी काकी?’
बुढ़िया हँसकर बोली–‘पाहुने न होते, तो पानी भरने कैसे आते! तेरे घर भी पाहुने ऐसे आते हैं?’
युवती ने तिरछी आँखों से अमर के देखकर कहा– ‘हमारे पाहुने तो अपने हाथ से पानी भी नहीं पीते काकी। ऐसे भोले-भाले पाहुने को मैं अपने घर ले जाऊँगी।’
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