उपन्यास >> कर्मभूमि (उपन्यास) कर्मभूमि (उपन्यास)प्रेमचन्द
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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…
अमरकान्त का कलेजा धक्-से हो गया। वह युवती वही मुन्नी थी, जो ख़ून के मुक़दमे से बरी हो गयी थी। वह अब उतनी दुर्बल, उतनी चिन्तित नहीं है। रूप में माधुर्य है, अंगों में विकास, मुख पर हास्य की मधुर छवि। आनन्द का जीवन का तत्त्व है। वह अतीत की परवाह नहीं करता; पर शायद मुन्नी ने अमरकान्त को नहीं पहचाना। उसकी सूरत इतनी बदल गयी है। शहर का सुकुमार युवक देहात का मजूर हो गया है।
अमर ने झेपते हुए कहा–‘मैं पाहुना नहीं हूँ देवी, परदेसी हूँ। आज इस गाँव में आ निकला। इस नाते सारे गाँव का अतिथि हूँ।’
युवती ने मुस्कुराकर कहा–‘तब एक-दो घड़ों से पिण्ड न छूटेगा। दो सौ घड़े भरने पड़ेंगे, नहीं तो घड़ा इधर बढ़ा दो। झूठ तो नहीं कहती काकी!’
उसने अमरकान्त के हाथ से घड़ा ले लिया और चट फन्दा लगा, कुएँ में डाल, बात-की-बात में घड़ा खींच लिया।
अमरकान्त घड़ा लेकर चला गया, तो मुन्नी ने सलोनी से कहा–‘किसी भले घर का आदमी है काकी। देखो, शर्माता था। मेरे यहाँ से अचार मँगवा लीजियो, आटा वाटा तो है?’
सलोनी ने कहा–‘बाजरे का है, गेहूँ कहाँ से लाती?’
‘तो मैं आटा लिए आती हूँ। नहीं चलो दे दूँ। वहाँ काम-धन्धे में लग जाऊँगी, तो सुरति न रहेगी।’
मुन्नी को तीन साल हुए मुखिया का लड़का हरिद्वार से लाया था। एक सप्ताह से एक धर्मशाले के द्वार पर जीर्ण दशा में पड़ी थी। बड़े-बड़े आदमी धर्मशाले में आते थे, सैकड़ों-हज़ारों दान करते थे; पर इस दुखिया पर किसी को दया न आती थी। वह चमार युवक जूते बेचने आता था। इस पर उसे दया आ गयी। गाड़ी पर लादकर घर लाया। दवा-दारू होने लगी। चौधरी बिगड़े, यह मुर्दा क्यों लाया; पर युवक बराबर दौड़-धूप करता रहा। वहाँ डॉक्टर-वैद्य कहाँ थे। भभूत और आशीर्वाद का भरोसा था। एक ओझे की तारीफ़ सुनी, ‘युवक ने न माना, रात को ही चल दिया। गंगा चढ़ी हुई थी! उसे पार करके जाना था। सोचा, तैरकर निकल जाऊँगा, कौन बहुत चौड़ा पाट है। सौकड़ों ही बार इस तरह आ-जा चुका था। निश्शंक पानी में घुस पड़ा; पर लहरे तेज़ थीं, पाँव उखड़ गये, बहुत सँभालना चाहा; पर न सँभल सका। दूसरे दिन दो कोस पर उसकी लाश मिली! एक चट्टान से चिमटी पड़ी थी। उसके मरते ही मुन्नी जी उठी और तब से यहीं है। यही घर उसका घर है। यहाँ उसका आदर है, मान है। वह अपनी जात-पाँत भूल गयी, आचार-विचार भूल गयी, और ऊँच जाति ठकुराइन अछूतों के साथ, अछूत बनकर आनन्दपूर्वक रहने लगी। वह घर की मालकिन थी। बाहर का सारा काम वह करती, भीतर की रसोई-पानी, कूटना-पीसना देवरानियाँ करती थीं। वह बाहरी न थी। चौधरी की बड़ी बहू हो गयी थी।
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