उपन्यास >> कर्मभूमि (उपन्यास) कर्मभूमि (उपन्यास)प्रेमचन्द
|
31 पाठक हैं |
प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…
सलोनी को ले जाकर मुन्नी ने एक थाल में आटा, अचार और दही रखकर दिया; पर सलोनी को यह थाल लेकर जाते लाज आती थी। पाहुना द्वार पर बैठा हुआ है। सोचेगा, इसके घर में आटा भी नहीं है? ज़रा और अँधेरा हो जाय। तो जाऊँ।
मुन्नी ने पूछा–‘क्या सोचती हो काकी?’
‘सोचती हूँ, ज़रा और अँधेरा हो जाय तो जाऊँ। अपने मन में क्या कहेगा।’
‘चलो मैं पहुँचा देती हूँ। कहेगा क्या, क्या समझता है यहाँ धन्ना सेठ बसते हैं। मैं तो कहती हूँ, देख लेना, वह बाजरे की ही रोटियाँ खायेगा। गेहूँ की छुएगा भी नहीं।’
दोनों पहुँची तो देखा अमरकान्त द्वार पर झाड़ू लगा रहा है। महीनों से झाड़ू न लगी थी। मालूम होता था, उलझे बिखरे बालों पर कंघी कर दी गयी है।
सलोनी थाली लेकर जल्दी से भीतर चली गयी। मुन्नी ने कहा–‘अगर ऐसी मेहमानी करोगे, तो यहाँ से कभी न जाने पाओगे।’
उसने अमर के पास जाकर उसके हाथ से झाड़ू छीन ली। अमर ने कूड़े को पैरों से एक जगह बटोरकर कहा–‘सफ़ाई हो गयी, तो द्वार कैसा अच्छा लगने लगा।’
‘कल चले जाओगे, तो यह बातें याद आयेंगी। परदेसियों का क्या विश्वास? फिर इधर क्यों आओगे?’
मुन्नी के मुख पर उदासी छा गयी।
‘जब कभी इधर आना होगा, तो तुम्हारे दर्शन करने अवश्य आऊँगा। ऐसा सुन्दर गाँव मैंने नहीं देखा। नदी, पहाड़, जंगल इसकी भी छटा निराली है। जी चाहता है, यहीं रह जाऊँ और कहीं जाने का नाम न लूँ।’
मुन्नी ने उत्सुकता से कहा–‘तो यही रह क्यों नहीं जाते?’ मगर फिर कुछ सोचकर बोली–‘तुम्हारे घर में और लोग भी तो होंगे, वह तुम्हें क्यों रहने देंगे?
‘मेरे घर में ऐसा कोई नहीं है, जिसे मेरे मरने-जीने की चिन्ता हो। मैं संसार में अकेला हूँ।’
मुन्नी आग्रह करके बोली–‘तो यहीं रह जाओ, कौन भाई हो तुम?’
|