उपन्यास >> कर्मभूमि (उपन्यास) कर्मभूमि (उपन्यास)प्रेमचन्द
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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…
अमरकान्त ने बचत के पाँच सौ रुपये उनके सामने रख दिए।
रेणुका देवी ने चकित होकर कहा–‘क्या पाँच सौ ही में सब कुछ हो गया? मुझे तो विश्वास नहीं आता।’
‘जी नहीं, पाँच सौ ही खर्च हुए।’
‘यह तो तुमने इनाम देने का काम किया है। यह बचत के रुपये तुम्हारे हैं।’
अमर ने झेंपते हुए कहा–‘जब मुझे ज़रूरत होगी, आपसे माँग लूँगा। अभी तो कोई ऐसी ज़रूरत नहीं है।’
रेणुका देवी रूप और आस्था से नहीं, विचार और व्यवहार से वृद्धा थीं। दान और व्रत में उनकी आस्था न थी; लेकिन लोकमत की अवहेलना न कर सकती थीं। विधवा का जीवन तप का जीवन है। लोकमत इसके विपरीत कुछ नहीं देख सकता। रेणुका को विवश होकर धर्म का स्वाँग भरना पड़ता था; किन्तु जीवन बिना किसी आधार के तो नहीं रह सकता। भोग-विलास, सैर-तमाशे से आत्मा उसी भाँति सन्तुष्ट नहीं होती, जैसे कोई चटनी और अचार खाकर अपनी क्षुधा को शान्त नहीं कर सकता। जीवन किसी तथ्य पर ही टिक सकता है। रेणुका के जीवन में यह आधार पशु-प्रेम था। वह अपने साथ पशु-पक्षियों का एक चिड़ियाघर लाई थीं। तोते, मैने, बन्दर, बिल्ली, गायें, हिरन, मोर, कुत्ते आदि पाल रखे थे और उन्हीं के सुख-दुःख में सम्मिलित होकर जीवन में सार्थकता का अनुभव करती थीं। हर एक का अलग-अलग नाम था, रहने का अलग-अलग स्थान था, खाने-पीने के अलग-अलग बर्तन थे। अन्य रईसों की भाँति उनका पशु-प्रेम नुमायशी, फैशनेबल या मनोरंजक न था। अपने पशु-पक्षियों में उनकी जान बसती थी। वह उनके बच्चों को उसी मातृत्व-भरे स्नेह से खेलाती थीं मानो अपने नाती-पोते हों। ये पशु भी उनकी बातें, उनके इशारे, कुछ इस तरह समझ जाते थे कि आश्चर्य होता था।
दूसरे दिन माँ-बेटी में बातें होने लगीं।
रेणुका ने कहा–‘तुझे ससुराल इतनी प्यारी हो गयी?’
सुखदा लज्जित होकर बोली–‘क्या करूँ अम्माँ, ऐसी उलझन में पड़ी हुई हूँ कि कुछ सूझता ही नहीं। बाप-बेटे में बिल्कुल नहीं बनती। दादाजी चाहते हैं, वह घर का धन्धा देखे। वह कहते हैं, मुझे इस व्यवसाय से घृणा है। मैं चली जाती, तो न जाने क्या दशा होती। मुझे बराबर यह खटका लगा रहता है कि वह देश-विदेश की राह न लें। तुमने मुझे कुएँ में ढकेल दिया और क्या कहूँ।’
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