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कर्मभूमि (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :658
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8511

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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…


‘मुझे इस लेन-देन, सूद-ब्याज से घृणा है।’

सुखदा मुस्कराकर बोली–‘यह तो तुम्हारा अच्छा तर्क है। मरीज को छोड़ दो, वह आप-ही-आप अच्छा हो जायेगा। इस तरह मरीज़ मर जायेगा, अच्छा न होगा। तुम दुकान पर जितनी देर बैठोगे, कम-से-कम उतनी देर तो यह घृणित व्यापार न होने दोगे। यह भी तो सम्भव है कि तुम्हारा अनुराग देखकर लालाजी सारा काम तुम्हीं को सौंप दें। तब तुम अपने इच्छानुसार इसे चलाना। अगर अभी इतना भार नहीं लेना चाहते, तो न लो; लेकिन लालाजी की मनोवृत्ति पर तो कुछ-न-कुछ प्रभाव डाल ही सकते हो। वह वही कर रहे हैं, जो अपने-अपने ढंग से सारा संसार कर रहा है। तुम विरक्त होकर उनके विचार और नीत को नहीं बदल सकते। और अगर तुम अपना ही राग अलापोगे, तो मैं कहे देती हूँ, अपने घर चली जाऊँगी, तुम जिस तरह जीवन व्यतीत करना चाहते हो, वह मेरे मन की बात नहीं। तुम बचपन से ठुकराए गये हो और कष्ट सहने में अभ्यस्त हो। मेरे लिए यह नया अनुभव है।’

अमरकान्त परास्त हो गया। इसके कई दिन बाद उसे कई जवाब सूझे; पर इस वक़्त वह कुछ जवाब न दे सका। नहीं, उसे सुखदा की बातें न्यायसंगत मालूम हुईं। अभी तक उसकी स्वतन्त्र कल्पना का आधार पिता की कृपणता थी। उसका अंकुर विमाता की निर्ममता ने जमाया था। तर्क या सिद्धान्त पर उसका आधार न था; और वह दिन तो अभी दूर, बहुत दूर था, जब उसके चित्त की वृत्ति ही बदल जाए। उसने निश्चय किया–पत्र-व्यवहार का काम छोड़ दूँगा। दुकान पर बैठने में भी उसकी आपत्ति उतनी तीव्र न रही। हाँ, अपनी शिक्षा का खर्च वह पिता से लेने पर किसी तरह अपने मन को न दबा सका। इसके लिए उसे कोई दूसरा ही गुप्त मार्ग खोजना पड़ेगा। सुखदा से कुछ दिनों के लिए उसकी संधि-सी हो गयी।

इसी बीच में एक और घटना हो गयी, जिसने उसकी स्वतन्त्र कल्पना को भी शिथिल कर दिया।

सुखदा इधर सालभर से मैके न गयी थी। विधवा माता-बार-बार बुलाती थीं, लाला समरकान्त भी चाहते थे कि दो-एक महीने के लिए हो आये; पर सुखदा जाने का नाम न लेती थी। अमरकान्त की ओर से वह निश्चिंत न हो सकती थी। वह ऐसे घोड़े पर सवार थी, जिसे नित्य फेरना लाज़िमी था, दस-पाँच दिन बँधा रहा, तो फिर पुट्ठे पर हाथ ही न रखने देगा। इसीलिए वह अमरकान्त को छोड़कर न जाती थी।

अन्त में माता ने स्वयं काशी आने का निश्चय किया। उनकी इच्छा अब काशीवास करने को भी हो गयी। एक महीने तक अमरकान्त उसके स्वागत की तैयारियों में लगा रहा। गंगातट पर बड़ी मुश्किल से पसन्द का घर मिला, जो न बहुत बड़ा था, न बहुत छोटा। उसकी सफ़ाई और सुफ़ेदी में कई दिन लगे। गृहस्थी की सैकड़ों ही चीजें जमा करनी थीं। उसके नाम सास ने एक हज़ार का बीमा भेज दिया था। उसने कतर-ब्योंत से उसके आधे ही में सारा प्रबन्ध कर दिया। पाई-पाई का हिसाब लिखा तैयार था। जब सासजी प्रयाग स्नान करती हुई, माघ में काशी पहुंची, तो यहाँ का सुप्रबन्ध देखकर बहुत प्रसन्न हुईं।

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