उपन्यास >> कर्मभूमि (उपन्यास) कर्मभूमि (उपन्यास)प्रेमचन्द
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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…
अमर ने शान्तिपूर्वक कहा–‘काम करके कुछ उपार्जन करना शर्म की बात नहीं। दूसरों का मुँह ताकना शर्म की बात है।’
‘तो ये धनियों के जितने लड़के हैं, सभी बेशर्म हैं?’
‘हैं ही, इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं। अब तो लालाजी मुझे ख़ुशी से भी रुपये दें; तो न लूँ। जब तक अपनी सामर्थ्य का ज्ञान न था, तब तक उन्हें कष्ट देता था। जब मालूम हो गया कि मैं अपने खर्च भर को कमा सकता हूँ, तो किसी के सामने हाथ क्यों फैलाऊँ।’
सुखदा ने निर्दयता के साथ कहा–‘सो जब तुम अपने पिता से कुछ लेना अपमान की बात समझते हो, तो मैं क्यों उनकी आश्रित बनकर रहूं। इसका आशय तो यही हो सकता है कि मैं भी किसी पाठशाला में नौकरी करूँ या सीने-पिरोने का धन्धा उठाऊँ।’
अमरकान्त ने संकट में पड़कर कहा–‘तुम्हारे लिए इसकी कोई ज़रूरत नहीं।’
क्यों! मैं खाती-पहनती हूँ, गहने बनवाती हूँ, पुस्तकें लेती हूँ, पत्रिकाएँ मँगवाती हूँ, दूसरों ही की कमाई पर तो? इसका तो यह आशय भी हो सकता है कि मुझे तुम्हारी कमाई पर भी कोई अधिकार नहीं, मुझे खुद परिश्रम करके कमाना चाहिए।’
अमरकान्त को संकट से निकलने की एक युक्ति सूझ गयी–‘अगर दादा, या तुम्हारी अम्माँजी तुमसे चिढ़ें और मैं भी ताने दूँ तब निस्संदेह तुम्हें खुद धन कमाने की ज़रूरत पड़ेगी।
‘कोई मुँह से न कहे; पर मन तो समझ सकता है। अब तक मैं समझती थी, तुम पर मेरा अधिकार है। तुमसे जितना चाहूँगी, लड़कर ले लूँगी; लेकिन अब मालूम हुआ, मेरा कोई अधिकार नहीं। तुम जब चाहो, मुझे जवाब दे सकते हो। यही बात है या कुछ और?’
अमरकान्त ने हारकर कहा–‘तो तुम मुझे क्या करने को कहती हो? दादा से हर महीने रुपये के लिए लड़ता रहूँ?’
सुखदा बोली–‘हाँ, मैं यही चाहती हूँ। यह दूसरों की चाकरी छोड़ दो और घर का धन्धा देखो। जितना समय उधर देते हो, उतना ही समय घर के कामों में दो।’
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