उपन्यास >> कर्मभूमि (उपन्यास) कर्मभूमि (उपन्यास)प्रेमचन्द
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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…
‘फिल्मों से भी बहुत-कुछ लाभ उठाया जा सकता है।’
‘तो मैं तुम्हें मना तो नहीं करता।’
‘तुम क्यों नहीं चलते?’
‘जो आदमी कुछ उपार्जन न करता हो, उसे सिनेमा देखने का कोई अधिकार नहीं। मैं उसी सम्पत्ति को अपना समझता हूँ जिसे मैंने अपने परिश्रम से कमाया है।’
कई मिनट तक दोनों गुम बैठे रहे। अब अमर जलपान करके उठा, तो सुखदा ने सप्रेम आग्रह से कहा–‘कल से संध्या समय दुकान पर बैठा करो। कठिनाइयों पर विजय पाना पुरुषार्थी मनुष्यों का काम है अवश्य; मगर कठिनाइयों की सृष्टि करना, अनायास पाँव में काँटे चुभाना कोई बुद्धिमानी नहीं है।’
अमरकान्त इस आदेश का आशय समझ गया; पर कुछ बोला नहीं। विलासिनी संकटों से कितना डरती है! यह चाहती है, मैं भी गरीबों का ख़ून चूसूँ; उनका गला काटूँ, यह मुझसे न होगा।
सुखदा उसके दृष्टिकोण का समर्थन करके कदाचित् उसे जीत सकती थी। उधर से हटाने की चेष्टा करके वह उसके संकल्प को और भी दृढ़ कर रही थी। अमरकान्त उससे सहानुभूति करके अपने अनुकूल बना सकता था; पर शुष्क त्याग का रूप दिखाकर उसे भयभीत कर रहा था।
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अमरकान्त मैट्रिकुलेशन की परीक्षा में प्रान्त में सर्वप्रथम आया; पर अवस्था अधिक होने के कारण छातृवृत्ति न पा सका। इससे उसे निराशा की जगह एक तरह का संतोष हुआ; क्योंकि वह अपने मनोविकारों को कोई टिकौना न देना चाहता था। उसने कई बड़ी-बड़ी कोठियों में पत्र-व्यवहार करने का काम उठा लिया। धनी पिता का पुत्र था, यह काम उसे आसानी से मिल गया। लाला समरकान्त को व्यावसाय-नीति से प्रायः उनकी बिरादरीवाले जलते थे और पिता-पुत्र के इस वैमनस्य का तमाशा देखना चाहते थे। लालाजी पहले तो बहुत बिगड़े। उनका पुत्र उन्हीं के सहवर्गियों की सेवा करे। यह उन्हें अपमानजनक जान पड़ा; पर अमर ने उन्हें सुझाया कि वह यह काम केवल व्यावसायिक ज्ञानोपार्जन के भाव से कर रहा है। लालाजी ने भी समझा, कुछ-न-कुछ सीख ही जायेगा। विरोध करना छोड़ दिया। सुखदा इतनी आसानी से मानने वाली न थी एक दिन दोनों में इसी बात पर झौड़ हो गयी।
सुखदा ने कहा–‘तुम दस-दस, पाँच-पाँच रुपये के लिए दूसरों की खुशामद करते फिरते हो; तुम्हें शर्म भी नहीं आती।’
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