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कर्मभूमि (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :658
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8511

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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…


अमर ने इस शिकायत की कोमलता या तो समझी नहीं, या समझकर उसका रस न ले सका। लालाजी ने जो आघात किया था, अभी उसकी आत्मा उस वेदना से तड़प रही थी। बोला–‘मैं भी यही उचित समझता हूँ। अब मुझे पढ़ना छोड़कर जीविका की फिक्र करनी पड़ेगी।’

सुखदा ने खीझकर कहा–‘हाँ, ज़्यादा पढ़ लेने से सुनती हूं आदमी पागल हो जाता है।’

अमर ने लड़ने के लिए यहाँ भी आस्तीनें चढ़ा लीं–तुम यह आक्षेप व्यर्थ कर रही हो। पढ़ने से मैं जी नहीं चुराता; लेकिन इस दशा में मेरा पढ़ना नहीं हो सकता। आज स्कूल में मुझे जितना लज्जित होना पड़ा, वह मैं ही जानता हूँ। अपनी आत्मा की हत्या करके पढ़ने से भूखा रहना कहीं अच्छा है।

सुखदा ने भी अपने शस्त्र सँभाले। बोली–‘मैं तो समझती हूं कि घड़ी-दो-घड़ी दुकान पर बैठकर भी आदमी कुछ पढ़ सकता है। चरखे और जलसों में जो समय देते हो, वह दुकान पर दो, तो कोई बुराई न होगी। फिर, जब तुम किसी से कुछ कहोगे नहीं, तो कोई तुम्हारे दिल की बातें कैसे समझ लेगा? मेरे पास इस वक़्त भी एक हज़ार रुपये से कम नहीं। वह मेरे रुपये हैं, मैं उन्हें उड़ा सकती हूं। तुमने मुझसे चर्चा तक न की। मैं बुरी सही, तुम्हारी दुश्मन नहीं। आज लालाजी की बातें सुनकर मेरा रक्त खौल रहा था। चालीस रुपये के लिए इतना हंगामा! तुम्हें जितनी ज़रूरत हो, मुझसे लो, मुझसे लेते तुम्हारे आत्मसम्मान को चोट लगती हो, अम्माँ से लो। वह अपने को धन्य समझेंगी। उन्हें इसका अरमान ही रह गया कि तुम उनसे कुछ माँगते। मैं तो कहती हूं, मुझे लेकर लखनऊ चले चलो और निश्चिंत होकर पढ़ो। अम्माँ तुम्हें इंग्लैण्ड भेज देंगी। वहाँ से अच्छी डिग्री ला सकते हो।’

सुखदा ने निष्कपट भाव से यह प्रस्ताव किया था। शायद पहली बार उसने पति से अपने दिल की बात कही; पर अमरकान्त को बुरा लगा। बोल–‘मुझे डिग्री इतनी प्यारी नहीं है कि उसके लिए ससुराल की रोटियाँ तोड़ूं; अगर मैं अपने परिश्रम से धनोपार्जन करके पढ़ सकूंगा, तो पढ़ूँगा, नहीं कोई धन्धा देखूँगा। मैं अब तक व्यर्थ की शिक्षा के मोह में पड़ा हुआ था। कालेज के बाहर भी अध्ययनशील आदमी बहुत-कुछ सीख सकता है। मैं अभिमान नहीं करता; लेकिन साहित्य और इतिहास की जितनी पुस्तकें इन दो-तीन सालों में मैंने पढ़ी हैं, शायद ही मेरे कालेज में किसी ने पढ़ी हों।’

सुखदा ने इस अप्रिय विषय का अन्त करने के लिए कहा–‘अच्छा, नाश्ता तो कर लो। आज तो तुम्हारी मीटिंग है। नौ बजे के पहले क्यों लौटने लगे। मैं तो टाकी में जाऊँगी। अगर तुम ले चलो, तो मैं तुम्हारे साथ चलने को तैयार हूं।’

अमर ने रूखेपन से कहा–‘मुझे टाकी में जाने की फुरसत नहीं है। तुम जा सकती हो।’

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