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कर्मभूमि (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :658
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8511

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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…


दैनिक समाचार-पत्रों के पढ़ने से अमरकान्त के राजनैतिक ज्ञान का विकास होने लगा। देशवासियों के साथ शासक-मण्डल की कोई अनीति देखकर उसका ख़ून खौल उठता था। जो संस्थाएँ राष्ट्रीय उत्थान के लिए उद्योग कर रही थीं, उनसे उसे सहानुभूति हो गयी। वह अपने नगर की कांग्रेस-कमेटी का मेम्बर बन गया और उसके कार्यक्रम में भाग लेने लगा।

एक दिन कालेज के कुछ छात्र देहातों की आर्थिक दशा की जाँच-परताल करने निकले। सलीम और अमर भी चले। अध्यापक डॉ. शान्तिकुमार उनके नेता बनाये गये। कई गाँवों की परताल करने के बाद मण्डली संध्या समय लौटने लगी तो अमर ने कहा– ‘मैंने कभी अनुमान न किया था कि हमारे कृषकों की दशा इतनी निराशाजनक है।’

सलीम बोला–‘तालाब के किनारे वह जो चार-पाँच घर मल्लाहों के थे, उनमें तो लोहे के दो-एक बरतन के सिवा कुछ था ही नहीं। मैं समझता था देहातियों के पास अनाज की बखारें भरी होंगी; लेकिन यहाँ तो किसी घर में अनाज के मटके तक न थे।

शान्तिकुमार बोले–सभी किसान इतने ग़रीब नहीं होते। बड़े किसान के घर में बखारे भी होती हैं; लेकिन ऐसे किसान गाँव में दो-चार से ज़्यादा नहीं होते।

अमरकान्त ने विरोध किया–‘मुझे तो इन गाँवों में एक भी ऐसा किसान न मिला। और महाजन और अमले इन्हीं ग़रीबों को चूसते हैं! मैं कहता हूँ; उन लोगों को इन बेचारों पर दया भी नहीं आती!’

शान्तिकुमार ने मुस्कराकर कहा–‘दया और धर्म की बहुत दिनों परीक्षा हुई और यह दोनों हलके पड़े। अब तो न्याय-परीक्षा का युग है।’

शान्तिकुमार की अवस्था कोई पैंतीस की थी। गोरे-चिट्टे, रूपवान आदमी थे। वेशभूषा अंग्रेजी थी, और पहली नज़र में अंग्रेज ही मालूम होते थे; क्योंकि उनकी आँखें नीली थीं, और बाल भी भूरे थे। आक्सफोर्ड से डॉक्टर की उपाधि प्राप्त कर लाये थे। विवाह के कट्टर विरोधी, स्वतन्त्र-प्रेम के कट्टर भक्त, बहुत ही प्रसन्न-मुख, सहृदय, सेवाशील व्यक्ति थे। मज़ाक का कोई अवसर पाकर न चूकते थे। छात्रों से मित्र भाव रखते थे। राजनैतिक आन्दोलनों में खूब भाग लेते; पर गुप्त रूप से। खुले मैदान में न आते। हाँ, सामाजिक क्षेत्र में खूब गरजते थे।

अमरकान्त ने करुण स्वर में कहा–‘मुझे तो उस आदमी की सूरत नहीं भूलती, जो छः महीने से बीमार पड़ा था और एक पैसे की भी दवा न ली। इस दशा में ज़मींदार ने लगान की डिग्री करा ली और जो कुछ घर में था, नीलाम कर लिया। बैल तक बिकवा लिए। ऐसे अन्यायी संसार की नियन्ता कोई चेतन शक्ति है, मुझे तो इसमें सन्देह हो रहा है। तुमने देखा नहीं सलीम; ग़रीब के बदन पर चिथड़े तक न थे। उनकी वृद्धा माता कितना फूट-फूटकर रोती थी।

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