उपन्यास >> कर्मभूमि (उपन्यास) कर्मभूमि (उपन्यास)प्रेमचन्द
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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…
बहुत-सी आवाजें आयीं–‘हम लोग तैयार हैं।’
‘खूब समझ लो कि वहाँ तुम पान-फूल से पूजे न जाओगे।’
‘कुछ परवाह नहीं। मर तो रहे हैं, सिसक-सिसक कर क्यों मरें!’
‘तो इसी वक़्त चलो। हम दिखा दें कि...’
सहसा अमर खड़े होकर प्रदीप्ति नेत्रों से कहा–ठहरो!’
समूह में सन्नाटा छा गया। जो जहाँ था, वहीं खड़ा रह गया।
अमर ने छाती ठोककर कहा–‘जिस रास्ते पर तुम जा रहे हो, वह उद्धार का रास्ता नहीं है–सर्वनाश का रास्ता है। तुम्हारा बैल अगर बीमार पड़ जाये तो तुम उसे जोतोगे?’
किसी तरफ़ से कोई आवाज़ न आयी।
‘तुम पहले उसकी दवा करोगे, और जब तक वह अच्छा न हो जायेगा, उसे न जोतोगे? क्योंकि तुम बैल को मारना नहीं चाहते! उसके मरने से तुम्हारे खेत परती पड़ जायेंगे।’
गूदड़ बोले–‘बहुत ठीक कहते हो भैया।’
‘घर में आग लगने पर हमारा क्या धर्म है? क्या हम आग को फैलने दें और घर की बची-बचाई चीज़ें भी लाकर उसमें डाल दें?
गूदड़ ने कहा–‘कभी नहीं, कभी नहीं।’
‘क्यों? इसलिए कि हम घर को जलाना नहीं, बनाना चाहते हैं। हमें उस घर में रहना है। उसी में जीना है। यह विपत्ति कुछ हमारे ही ऊपर नहीं पड़ी है। सारे देश में यही हाहाकार मचा हुआ है। हमारे नेता इस प्रश्न को हल करने की चेष्टा कर रहे हैं। उन्हीं के साथ हमें भी चलना है।’
उसने एक लम्बा भाषण किया; पर वही जनता जो उसका भाषण सुनकर मस्त हो जाती थी, आज उदासीन बैठी थी। उसका सम्मान सभी करते थे, इसीलिए कोई ऊधम न हआ, कोई बमचख न मचा; पर जनता पर कोई असर न हुआ। आत्मानन्द इस समय जनता का नायक बना हुआ था।
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