उपन्यास >> कर्मभूमि (उपन्यास) कर्मभूमि (उपन्यास)प्रेमचन्द
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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…
सभा बिना कुछ निश्चय किये उठ गयी, लेकिन बहुमत किस तरफ़ है, यह किसी से छिपा न था।
४
अमर घर लौटा, तो बहुत हताश था। अगर जनता को शान्त करने का उपाय न किया गया, तो अवश्य उपद्रव हो जायेगा। उसने महन्तजी से मिलने का निश्चय किया। इस समय उसका चित्त इतना उदास था कि एक बार जी में आया, यहाँ सब छोड़-छाड़ कर चला जाय। उसे अभी तक अनुभव न हुआ था कि जनता सदैव तेज़ मिज़ाज़ों के पीछ चलती है। वह न्याय और धर्म, हानि-लाभ, अहिंसा और त्याग, सब कुछ समझाकर भी अत्मानन्द के फूँके हुए जादू को उतार न सका। अत्मानन्द इस वक़्त यहाँ मिल जाते, तो दोनों मित्रों में ज़रूर लड़ाई हो जाती; लेकिन वह आज गायब थे। उन्हें आज घोड़े का आसन मिल गया था। किसी गाँव में संगठन करने चले गये थे।
आज अमर का कितना अपमान हुआ। किसी ने उसकी बातों पर कान तक न दिया। उनके चेहरे कह रहे थे, तुम क्या बकते हो, तुमसे हमारा उद्धार न होगा। इस गाँव पर कोमल शब्दों के मरहम की ज़रूरत थी–‘कोई उसे लेटाकर उसके घाव को फाहे से धोए; उस पर शीतल लेप करे।’
मुन्नी रस्सी और कलसा लिए हुए निकली और बिना उसकी ओर ताके कुएँ की ओर चली गयी। उसने पुकारा–‘ज़रा सुनती जाओ मुन्नी।’ पर मुन्नी ने सुनकर भी न सुना। ज़रा देर बाद वह कलसा लिए हुए लौटी और फिर उसके सामने से सिर झुकाये चली गयी। अमर ने फिर पुकारा–‘मुन्नी, सुनो एक बात कहनी है।’ पर अब भी वह न रुकी। उसके मन में अब सन्देह न था।
एक क्षण में मुन्नी फिर निकली और सलोनी के घर जा पहुँची। वह मदरसे के पीछे एक छोटी-सी मड़ैया डालकर रहती थी। चटाई पर लेटी एक भजन गा रही थी। मुन्नी ने जाकर पूछा–‘आज कुछ पकाया नहीं काकी, यों ही सो रही?’
सलोनी ने उठकर कहा–‘खा चुकी बेटा, दोपहर की रोटियाँ रखी हुई थीं।’
मुन्नी ने चौके की ओर देखा। चौका साफ़ लिपा-पुता पड़ा था। बोली–‘काकी, तुम बहाना कर रही हो। क्या घर में कुछ है ही नहीं? अभी तो आते देर नहीं हुई, इतनी जल्द खा कहाँ से लिया?’
‘तू तो पतियाती नहीं बहू! भूख लगी थी, आते ही आते खा लिया। बरतन धो-धाकर रख दिये। भला तुमसे क्या छिपाती? कुछ न होता, तो माँग न लेती?’
‘अच्छा मेरी कसम खाओ।’
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