उपन्यास >> कर्मभूमि (उपन्यास) कर्मभूमि (उपन्यास)प्रेमचन्द
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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…
काकी ने हँसकर कहा–‘हाँ, अपनी क़सम खाती हूँ, खा चुकी।’
मुन्नी दुःखित होकर बोली–‘तुम मुझे गैर समझती हो काकी? जैसे मुझे तुम्हारे मरने-जीने से कुछ मतलब ही नहीं। अभी तो तुमने तेलहन बेचा था, रुपये क्या किये?’
सलोनी सिर पर हाथ रखकर बोली–अरे भगवान! तेलहन था ही कितना? कुल एक रुपया तो मिला। वह कल प्यादा ले गया। घर में आग लगाये देता था। क्या करती, निकालकर फेंक दिया। उस पर अमर भैया कहते हैं–‘महन्तजी से फरियाद करो। कोई नहीं सुनेगा बेटा। मैं कहे देती हूँ।’
मुन्नी बोली–‘अच्छा, तो चलो मेरे घर खा लो।’
सलोनी ने सजल-नेत्र होकर कहा–‘तू आज खिल देगी बेटी, अभी तो पूरा चौमासा पड़ा हुआ है। आजकल तो कहीं घास भी नहीं मिलती। भगवान न जाने कैसे पार लगायेंगे?
घर में अन्न का एक दाना भी नहीं है। डाँड़ी अच्छी होती, तो बाकी देके चार महीने निबाह हो जाता। इस डाँड़ी में आग लगे, आधी बाकी भी न निकली। अमर भैया को तू समझाती नहीं, स्वामीजी को बढ़ने नहीं देते।’
मुन्नी ने मुँह फेरकर कहा–‘मुझसे तो आजकल रूठे हुए हैं, बोलते ही नहीं। काम-धन्धे से फुरसत ही नहीं मिलती। घर के आदमी से बातचीत करने को भी फुरसत चाहिए। जब फटेहाल आये थे, तब फुरसत थी। यहाँ जब दुनिया जानने लगी, नाम हुआ, बड़े आदमी बन गये, तो अब फुरसत नहीं है।’
सलोनी ने विस्मय भरी आँखों से मुन्नी को देखा– ‘क्या कहती है बहू, वह तुमसे रूठे हुए हैं? मुझे तो विश्वास नहीं आता तुझे धोखा हुआ है। बेचारा रात-दिन तो दौड़ता है, न मिली होगी फुरसत। मैंने तुझे जो असीस दिया है, वह पूरा होके रहेगा, देख लेना।’
मुन्नी अपनी अनुदारता पर सकुचाती हुई बोली–‘मुझे किसी की परवाह नहीं है काकी। जिसे सौ बार गरज पड़े बोले, नहीं न बोले। वह समझते होंगे मैं उनके गले पड़ी जा रही हूँ। मैं तुम्हारे चरन छूकर कहती हूँ काकी, जो यह बात कभी मेरे मन में आयी हो। मैं तो उनके पैरों की धूल के बराबर भी नहीं हूँ। हाँ, इतना चाहती हूँ कि वह मुझसे मन से बोलें, जो कुछ थोड़ी-बहुत सेवा करूँ, उसे मन से लें। मेरे मन में बस इतनी ही साध है कि मैं जल चढ़ाती जाऊँ और वह चढ़वाते जायें। और कुछ नहीं चाहते।
सहसा अमर ने पुकारा। सलोनी ने बुलाया–‘आओ भैया, अभी बहू आ गयी, उसी से बतिया रही हूँ।’
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