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कर्मभूमि (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :658
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8511

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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…


उसने प्रसन्न होकर कहा–‘उस नक़्क़ारखाने में तूती की आवाज कौन सुनता था काकी? लोग मन्दिर को घेरने जाते, तो फ़ौजदारी हो जाती। ज़रा-ज़रा सी बात में तो आजकल गोलियाँ चलती हैं।’

सलोनी ने भयभीत होकर कहा–‘तुमने बहुत अच्छा किया भैया, जो उनके साथ न हुए। नहीं ख़ून-खच्चर हो जाता।’

मुन्नी अर्द्र होकर बोली–‘मैं तो उनके साथ कभी न जाने देती लाला। हाकिम संसार पर राज करता है, तो क्या रैयत का दुःख-दर्द न सुनेगा? स्वामीजी आवेंगे, तो पूछूँगी।’

आग की तरह जलता हुआ भावसहानुभूति और सहृदयता से भरे हुए शब्दों से शीतल होता जान पड़ा। अब अमर कल अवश्य महन्तजी की सेवा में जायेगा। उसके मन में अब कोई शंका, कोई दुविधा नहीं है।

अमर गूदड़ चौधरी के साथ महन्त आशाराम गिरि के पास पहुँचा। संध्या का समय था। महन्तजी एक सोने की कुरसी पर बैठे हुए थे, जिस पर मखमली गद्दा था। उनके इर्द-गिर्द भक्तों की भीड़ लगी हुई थी, जिसमें महिलाओं की संख्या ही अधिक थी। सभी धुले हुए संगमरमर के फ़र्श पर बैठी हुई थीं। पुरुष दूसरी ओर बैठे थे। महन्तजी पूरे छः फीट के विशालकाय सौम्य पुरुष थे। अवस्था कोई पैंतीस वर्ष की थी। गोरा रंग, दुहरी देह, तेजस्वी मूर्ति, काषाय वस्त्र तो थे, किन्तु रेशमी। वह पाँव लटकाये बैठे हुए थे। भक्त लोग जाकर उनके चरणों को आँखो से लगाते थे, पूजा चढ़ाते थे और अपनी जगह पर आ बैठते थे। गूदड़ तो अन्दर जा न सकते थे, अमर अन्दर गया, पर वहाँ उसे कौन पूछता? आख़िर जब खड़े-खड़े आठ बज गये, तो उसने महन्तजी के समीप जाकर कहा– ‘महाराज, मुझे आपसे कुछ निवेदन करना है।’
महन्तजी ने इस तरह उसकी ओर देखा, मानों उन्हें आँखें फेरने में भी कष्ट है।

उनके समीप एक दूसरा साधु खड़ा था। उसने आश्चर्य से उसकी ओर देखकर पूछा–‘कहाँ से आते हो?’

अमर ने गाँव का नाम बताया।

हुकुम हुआ, आरती के बाद आओ।

आरती में तीन घण्टे की देर थी। अमर यहाँ कभी न आया था। सोचा, यहाँ की सैर ही कर लें। इधर-उधर घूमने लगा। यहाँ से पश्चिम तरफ़ तो विशाल मन्दिर था। सामने पूरब की ओर सिंहद्वार, दाहिने-बायें दो दरवाजें और भी थे। अमर दाहिने दरवाजें से अन्दर घुसा, तो देखा चारों तरफ़ चौड़े बरामदे हैं और भण्डार हो रहा है। कहीं बड़ी-बड़ी कढ़ाइयों में पूड़ियाँ-कचौड़ियाँ बन रही हैं, कहीं भाँति-भाँति की शाक-भाजी चढ़ी हुईं हैं; कहीं दूध उबल रहा है, कहीं मलाई निकाली जा रही है। बरामदे के पीछे कमरों में खाद्य सामग्री भरी हुई थी। ऐसा मालूम होता था, अनाज, साक-भाजी, मेवे, फल, मिठाई की भण्डियाँ हैं। एक पूरा कमरा तो केवल परवलों से भरा हुआ था। उस मौसम में परवल कितने महँगे होते हैं, पर यहाँ वह भूसे की तरह भरा हुआ था। अच्छे-अच्छे घरों की महिलाएँ भक्ति-भाव से व्यंजन पकाने में लगी हुई थीं। ठाकुरजी के ब्यालू की तैयारी थी। अमर यह भण्डार देखकर दंग रह गया। इस मौसम में यहाँ बीसों झाबे अंगूर भरे थे।

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